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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३१-३३ ७६ राजू अधिक होने से पूर्वोक्त छह राजू में इन दो राजू को मिलाने पर आठ राजू होते हैं। इस प्रकार अनेक जीवों को अपेक्षा मिश्रदृष्टि जीव की तिर्यग्लोक से अच्युत तक छह राजू और पहली, दूसरी नरंकपृथ्वी की एक-एक राजू कुल मिलाकर आठ राजू की स्पर्शना होती है। अथवा कोई मिश्रदृष्टि सहस्रारकल्पवासी देव पूर्वोक्त कारण से तीसरी नरकपथ्वी में जाता हुआ सात राजू स्पर्श करता है और उसी सहस्रार देव को कोई अच्युतदेवलोक का देव स्नेहवश अच्युतदेवलोक में ले जाये तब सहस्रार से अच्युत तक के एक राजू को अधिक स्पर्श करता है। इस प्रकार एक ही देव की अपेक्षा भी आठ राजू की स्पर्शना घटित होती है। अविरतसम्यग्दृष्टि के भी मिश्रदृष्टि की तरह आठ राजू की स्पर्शना समझना चाहिये। प्रश्न -अविरतसम्यग्दृष्टि उसी भव में सम्यक्त्व में रहते हुए काल भी करते हैं और सम्यक्त्व को साथ लेकर अन्य गति में भी जाते हैं, जिससे उनका दूसरी प्रकार से भी विचार क्यों नहीं करते ? मिश्रदृष्टिवत् भवस्थ सम्यक्त्वी की अपेक्षा ही क्यों विचार किया है ? उत्तर-दूसरी तरह से उनकी आठ राजू की स्पर्शना असंभव है। क्योंकि सम्यक्त्व सहित तिर्यंच अथवा मनुष्य कालधर्म को प्राप्त कर से अच्युतपर्यन्त पांच राजू होते हैं, यह कहा है। परन्तु जीवसमासादि के मत से छह राजू होते हैं, जो इस प्रकार जानना चाहिए ईसाणंमि दिवड्ढा अड्ढाइज्जा य रज्जुमाहिन्दे । पंचेव सहस्सारे छ अच्चुर सत्त लोगते ॥१६॥ अर्थात् तिर्य ग्लोक के मध्य भाग से ईशानपर्यन्त डेढ़ राजू, माहेन्द्रपर्यन्त ढाई राजू, सहस्रारपर्यन्त पांच राजू, अच्युतपर्यन्त छह राजू और लोकान्त पर्यन्त सात राजू होते हैं । यहाँ जो छह राजू का संकेत किया है, वह इसी पाठ के आधार से किया है और तभी अच्युतपर्यन्त छह राजू की स्पर्शना घटित होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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