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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २७-२६ विषयक है। वैक्रियसमुद्घात करती हुई आत्मा अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर उन प्रदेशों की मोटाई और चौड़ाई में अपने शरीरप्रमाण और लम्बाई में संख्यात योजनप्रमाण दण्ड करती है और दण्ड करके वैक्रियशरीरनामकर्म के पुद्गलों को पहले को तरह क्षय करती है। तेजस, आहारक समुद्घात-तैजस और आहारक समुद्घात अनुक्रम से तेजस और आहारक शरीरनामकर्मजन्य हैं और इनको क्रियसमुद्घात की तरह समझना चाहिये । लेकिन इतना विशेष है कि तैजस और आहारक समुद्घात करती हुई आत्मा क्रमशः तैजस और आहारक नामकर्म के पुद्गलों को क्षय करती है। वैक्रिय और आहारक ये दोनों समुद्धात उस-उस शरीर की विकुर्वणा करते समय होते हैं तथा तेजससमुद्घात जब किसी जीव पर तेजोलेश्या फैकी जाती है, तब होता है। केवलिसमुद्घात-अन्तमुहूर्त में मोक्ष जाने वाले केवलिभगवन्तों को होने वाला समुद्घात केवलिसमुद्घात कहलाता है। केवलिसमुद्घात करते हुए केवलिभगवान् साता-असाता वेदनीय, शुभ-अशुभ नामकर्म और उच्च-नीच गोत्रकर्म के पुद्गलों का क्षय करते हैं। उक्त सात प्रकार के समुद्धातों में से केवलिसमुद्घात के अतिरिक्त शेष सभी समुद्घातों का काल अन्तमुहूर्त है। मात्र केवलिसमुद्घात का काल आठ समय है।' अब इन समुद्घातभेदों का चार गतियों में विचार करते हैं मनुष्यगति में सातों समुद्घात होते हैं। क्योंकि मनुष्यों में सभी भाव संभव हैं। देवगति में आदि के पांच समुद्घात होते हैं। क्योंकि चौदहपूर्व का अध्ययन और क्षायिक ज्ञान, दर्शन, चारित्र नहीं होने से १ समुद्घात का विशेष विवेचन प्रज्ञापनासूत्र के ३६३ पद में देखिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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