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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६
गुणस्थानापेक्षा क्षेत्रप्रमाण
सासायणाइ सम्वे लोयस्स असंखयम्मि भागम्मि । मिच्छा उ सव्वलोए होइ सजोगी वि समुग्घाए ॥२६॥ शब्दार्थ--सासायणाइ-सासादन आदि गुणस्थान वाले जीव, सवेसभी, लोयस्स-लोक के, असंखयम्मि-असंख्यातवें, भागम्मि- भाग में, मिच्छा--मिथ्यादृष्टि, उ-और, सव्वलोए-समस्त लोक में, होइ---होते हैं, सजोगी-सयोगिकेवली, वि-भी, समुग्घाए-समुद्घात अवस्था में।
गाथार्थ-सासादन आदि सभी गुणस्थान वाले जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहे हुए हैं, मिथ्यादृष्टि सम्पूर्ण लोक में हैं और समुद्घात अवस्था में सयोगिकेवली भी सम्पूर्ण लोकव्यापी होते हैं।
विशेषार्थ-'सासायणाइ सब्वे....' इत्यादि अर्थात् सासादन सम्यग्दृष्टि आदि क्षीणमोहगुणस्थान पर्यन्तवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। क्योंकि सम्यगमिथ्याहृष्टि आदि गुणस्थान संज्ञी पंचेन्द्रिय में ही होते हैं और सासादनगुणस्थान अति अल्प कतिपय करण-अपर्याप्त बादर पृथ्वी, जल, वनस्पति, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में भी पाया जाता है, परन्तु वे और तीसरे आदि गुणस्थान वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय अति अल्प होने से लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं। इसी कारण उनका क्षेत्र लोक का असंख्यातवां भाग बताया है।
मिथ्यादृष्टि जीव सम्पूर्ण लोक में पाये जाते हैं। क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सकल लोकव्यापी हैं और वे सभी मिथ्यादृष्टि हैं तथा समुद्घातस्थिति में सयोगिकेवलीगुणस्थानवर्ती जीव भी सकल लोकव्यापी हो जाते हैं। समुद्घात करने वाले केवली की आत्मा पहले दण्ड समय और दूसरे कपाट समय में लोक के असंख्यातवे भाग में रहती है एवं तीसरे मंथान समय में लोक के असंख्याता भागों में Jain Education International
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