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________________ पंचसंग्रह तात्पर्य यह है कि पर्याप्त और अपर्याप्त नामकर्म के उदय वाले जीव हो क्रम से लब्धि पर्याप्त और लब्धि अपर्याप्त कहलाते हैं तथा करण - अपर्याप्त और करण पर्याप्त तो पर्याप्तनामकर्म का उदय होने के बाद जीव की अमुक अवस्था का ज्ञान कराने के लिए शास्त्रकार द्वारा रखे गये नाम हैं । जैसे कि लब्धि पर्याप्त, पर्याप्तनामकर्म वाले जीव जब तक स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न करें, तब तक उनकी अवस्था को करण अपर्याप्त अवस्था और स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने के बाद की अवस्था को करण पर्याप्त अवस्था कहना चाहिए । ६० इस प्रकार लब्धि पर्याप्त और लब्धि अपर्याप्त तो कर्मरूप हैं तथा करण अपर्याप्त और करण पर्याप्त कर्मरूप नहीं हैं, यह स्पष्ट भेद है । इस प्रकार स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने और न करने की योग्यता की अपेक्षा से समस्त संसारी जीवों- एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों को पर्याप्त और अपर्याप्त माना जाता है । सामान्य की अपेक्षा सभी जीव एकेन्द्रिय आदि पंचेन्द्रिय पर्यन्त पांच प्रकार के होने पर भी एकेन्द्रियों के बादर और सूक्ष्म तथा पंचेन्द्रियों के संज्ञी और असंज्ञी, यह दो विशेष भेद हो जाते हैं । जिससे सात भेद हुए और सूक्ष्म एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त के सातों भेद अपनो-अपनी योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने या न करने की शक्ति वाले होते हैं । अतः इन सभी जीवों का बोध कराने के लिए जीवस्थान के चौदह भेद किये जाते हैं । समस्त जीवों का इन चौदह प्रकारों में किया गया वर्गीकरण इतना वैज्ञानिक और युक्तिसंगत है कि उनमें सभी संसारी जीवों का समावेश हो जाता है । जीवस्थानों के चौदह प्रकारों के होने की उक्त प्रक्रिया को समझ बतलाने की आवश्यकता नहीं है, लिए संक्षेप में उनके लक्षणों का लेने के बाद उनके लक्षणों को तथापि सरलता से बोध करने के निर्देश करते हैं— १-४ सूक्ष्म, बादर एकेन्द्रिय-स्पर्शन, रसन आदि पांचों इन्द्रियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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