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पंचसंग्रह
मुक्त जीवों के निष्कर्म होने से उनमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। सभी स्वभाव से परिपूर्ण और समान हैं, किन्तु संसारी जीवों के कर्मसहित होने से उनमें गति, जाति, शरीर आदि-आदि की अपेक्षाओं से अनेक प्रकार की विभिन्नतायें, विविधतायें और विचित्रतायें दिखाई देती हैं। ये कर्मजन्य अवस्थायें अनन्त हैं, जिनका एक-एक जीव की अपेक्षा ज्ञान करना छद्मस्थ व्यक्ति के लिए सहज नहीं है, किन्तु जीवस्थान द्वारा उनका स्पष्टरूप से बोध होता है।
सर्वज्ञ केवलज्ञानी भगवन्तों ने समस्त संसारी जीवों का एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति आदि के रूप में विभागानुसार वर्गीकरण करके चौदह वर्ग बताये हैं। उनमें सभी संसारी जीवों का समावेश हो जाता है।
संसारी जीवों के इन वर्गों अर्थात् सूक्ष्म, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय आदि रूप में होने वाले प्रकारों-भेदों को जीवस्थान कहते हैं।
कर्मसाहित्य में प्रयुक्त जीवस्थान शब्द के लिये आगमों में 'भूतग्राम'' और दिगम्बर ग्रन्थों में 'जीवसमास'२ शब्द का प्रयोग किया है। लेकिन शब्दप्रयोग के सिवाय अर्थ और भेदों में अन्तर नहीं है।
मार्गणास्थान-मार्गणा का अर्थ है गवेषणा, मीमांसा, विचारणा,
१ समवायांग १४/१ २ जेहि अणेया जीवा णज्जते बहुविहा वि तज्जादी । ते पुण संगहिदत्था जीवसमासा ति विष्णया ।
-गोम्मटसार जीवकांड, गाथा ७०
-दि. पंचसंग्रह, १/३२ -जिन धर्मविशेषों के द्वारा नाना जीव और उनकी नाना प्रकार की जातियाँ जानी जाती हैं, उन पदार्थों का संग्रह करने वाले धर्मविशेषों को जीवसमास जानना चाहिये।
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