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________________ पंचसंग्रह (१) रोध करती है । क्योंकि वादर काययोग रहने तक सूक्ष्म योग रोके नहीं जा सकते हैं तथा समस्त बादर योगों का निरोध होने के अनन्तर ही सूक्ष्म योगों का रोध होता है । बादर काययोग को रोकती हुई आत्मा पूर्वस्पर्धकों के नीचे अपूर्वस्पर्धक करती है । अर्थात् पहले जो अधिक वीर्यव्यापार वाले स्पर्धकों को करती थी. अब यहाँ अत्यन्त हीन वीर्यव्यापार वाले अपूर्वस्पर्धकों को करती है । किक्यों पूर्व में इस प्रकार के अत्यन्त हीन वीर्याणु वाले स्पर्धक किसी काल में नहीं किये थे, इसीलिये इस समय किये जाने वाले स्पर्धक अपूर्व कहलाते हैं । उसमें पूर्वस्पर्धकों की जो पहली दूसरी आदि वर्गणायें हैं, उनमें जो वीर्याविभाग-परिच्छेद- वीर्याणु होते हैं, उनके असंख्यात भागों को खींचती है और एक असंख्यातवाँ भाग शेष रखती है और जीवप्रदेशों में का एक संख्यातवां भाग खींचती है और शेष सबको रखती है । यानि इतनी संख्या वाले जीवप्रदेशों में से पूर्वोक्त वीर्यव्यापार को रोकती है । बादर काययोग का रोध करने पर पहले समय में इस प्रकार की क्रिया होती है । ४८ तत्पश्चात् दूसरे समय में पहले समय में खींचे गये असख्यातभागप्रमाण जीवप्रदेशों में से असंख्यातगुण जीवप्रदेश खींचती है । अर्थात् प्रथम समय में एक भाग खींचा था, किन्तु दूसरे समय में असंख्यात भाग खींचती है— इतने अधिक जीवप्रदेशों में से वीर्यव्यापार को रोकती है तथा पहले समय में जो वीर्याणु खींचे थे उनसे असंख्यातगुणहीन यानि असंख्यातवें भाग प्रमाण वीर्याणुओं को खींचती है । तात्पर्य यह हुआ कि पहले समय की अपेक्षा असंख्यातवें भाग प्रमाण वीर्यव्यापार को रोकती है । इस प्रकार पूर्व - पूर्व समय से उत्तर - उत्तर के समय में असंख्यातगुण, असंख्यातगुण आत्मप्रदेशों में से पहले समय में रोके गये वीर्य व्यापार की अपेक्षा पीछे-पीछे के समय में असंख्यातगुणहीन असंख्यातगुणहीन वीर्यव्यापार रोकती हुई वहाँ तक जाती है कि जब अपूर्वस्पर्धक करने के अन्तर्मुहूर्त का चरम समय प्राप्त होता है । इस अन्तर्मुहूर्त काल में अत्यन्त अल्प वीर्यव्यापार वाले सूचिश्रेणि के वर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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