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________________ पंचसंग्रह (१) होने से अध्यवसाय असंख्यात क्यों होते हैं। क्योंकि प्रायः समान अध्यवसाय वाले होने से जीवों की संख्या अनन्त होने पर भी अध्यवसायों की संख्या तो असंख्य लोकाकाश प्रदेशप्रमाण ही है तथा प्रथम समय में जिस स्वरूप वाले और जितने अध्यवसाय होते हैं उनसे द्वितीय समय में अन्य और संख्या में अधिक अध्यवसाय होते हैं । दूसरे समय में जो अध्यवसाय होते हैं, उनसे अन्य और अधिक तीसरे समय में होते हैं । इसी प्रकार अपूर्वकरण के चरम समय पर्यन्त समझना चाहिये । ४० इस गुणस्थान में पूर्व - पूर्व समय से उत्तर-उत्तर के समय में अध्यवसायों की वृद्धि में जीवस्वभाव ही कारण है । इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीव प्रत्येक समय क्षयोपशम की विचित्रता के कारण विशुद्धि की प्रकर्षता से स्वभाव से ही भिन्न-भिन्न अध्यवसायों में रहते हैं, जिससे पहले समय में साथ चढ़े हुए जीवों में जो अध्यवसायों की भिन्नता है, उसकी अपेक्षा दूसरे समय में अधिक भिन्नता ज्ञात होती है । इस गुणस्थान के प्रथम समय के जघन्य अध्यवसाय से प्रथम समय का उत्कृष्ट अध्यवसाय अनन्तगुण विशुद्ध है । यहाँ जघन्य अध्यवसाय इस गुणस्थान की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि अप्रमत्तसंयतगुणस्थान के उत्कृष्ट अध्यवसाय से इस गुणस्थान का जघन्य अध्यवसाय भी अनन्तगुण विशुद्ध होता है । पहले समय के अध्यवसाय से दूसरे समय के अध्यवसाय अलग हैं। पहले समय के उत्कृष्ट अध्यवसाय से दूसरे समय का जघन्य अध्यवसाय तभी अनन्तगुण हो सकता है जब पहले समय के अध्यवसायों से दूसरे समय के अध्यवसाय अलग ही हों । उससे उसी समय का उत्कृष्ट अध्यवसाय अनन्तगुण विशुद्ध है - इस प्रकार वहाँ तक कहना चाहिये कि द्विचरम समय के उत्कृष्ट अध्यवसाय से चरम समय का जघन्य अध्यवसाय अनन्तगुण विशुद्ध है । उससे उसी चरम समय का उत्कृष्ट अध्यवसाय अनन्तगुण विशुद्ध है । इस प्रकार एक ही समय के अध्यवसाय भी असंख्यात भागवृद्ध, संख्यात भागवृद्ध, संख्यातगुणवृद्ध, अनन्तगुणवृद्ध - इस तरह छह स्थान युक्त होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only परस्पर अनन्तभागवृद्ध, असंख्यातगुणवृद्ध और जिसका अर्थ यह है कि www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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