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________________ ३ प्रज्ञापनासूत्र एवं तत्त्वार्थभाष्यगत पर्याप्ति संबंधी वर्णन 'पर्याप्तिः क्रियापरिसमाप्तिरात्मनः ' - विवक्षित आहारग्रहण, शरीरनिर्वृत्तनादि क्रिया करने में समर्थ करण की निष्पत्ति को पर्याप्ति कहते हैं । वह पुद्गल रूप है और उस उस क्रिया की कर्त्ता आत्मा की करणविशेष है । जिस करणविशेष से आत्मा में आहारादि ग्रहण करने का सामर्थ्य उत्पन्न हो वह करण जिन पुद्गलों से निष्पादित हो, इस प्रकार के परिणाम वाली आत्मा के द्वारा ग्रहण किये हुए पुद्गल पर्याप्ति शब्द से कहे जाते हैं । जैसे कि आहार ग्रहण करने में समर्थ करण की उत्पत्ति आहारपर्याप्ति, शरीर के करण की निष्पत्ति शरीरपर्याप्ति, इन्द्रिय के करण की उत्पत्ति इन्द्रियपर्याप्ति, उच्छ्वास और निःश्वास के योग्य करण की उत्पत्ति श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, भाषा के करण की उत्पत्ति भाषापर्याप्ति और मन के करण की उत्पत्ति मनपर्याप्ति कही जाती है । कहा है आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा की उत्पत्ति जिन पुद्गलों से होती है, उनके प्रति जो करण, वह पर्याप्ति है । कदाचित् यह कहा जाये कि सिद्धान्त में छह पर्याप्तियां प्रसिद्ध हैं तो यहाँ पांच पर्याप्तियां ही क्यों कही गई हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि इन्द्रियपर्याप्ति के ग्रहण से मनपर्याप्ति का ग्रहण कर लिये जाने से पर्याप्तियों के पांच नाम कहे गये हैं । प्रश्न- - शास्त्रकार ने मन को अनिन्द्रिय कहा है तो इन्द्रियों के ग्रहण से मन का ग्रहण कैसे हो सकता है ? For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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