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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : परिशिष्ट २ जीवस्थानों के सत्तावन भेद पृथ्वीकाय जलकाय तेजस्काय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय असंज्ञी पंचेन्द्रिय संज्ञी पंचेन्द्रिय X २ बादर - सूक्ष्म x ३ लब्ध्यपर्याप्त - निवृत्यपर्याप्त × २ × २ 17 Jain Education International 12 17 11 22 33 23 23 × ३ X ३ × ३ 11 X ३ × २ वायुकाय साधारण नित्यनिगोद वनस्पति × २ साधारण इतरगतिनिगोद वनस्पति x २ × ३ प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति ३ लब्ध्यपर्याप्त निवृत्यपर्याप्त पर्याप्त = ३ अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति X ३ 77 × ३ x ३ × ३ × ३ × ३ 17 31 31 " 11 33 "" 22 " " 33 " 33 "2 "" 33 "" पर्याप्त = "" For Private & Personal Use Only "1 33 23 11 "" "" "" " 17 36 ← 77 = 11 है = m स्थान की अपेक्षा जीवस्थानों के भेद--- जीवस्थानों के भेदों का पूर्वोक्त एक प्रकार है । अब यदि दूसरे प्रकार से जीवस्थानों के भेदों का विचार किया जाये तो स्थान की अपेक्षा इस प्रकार भी किया जा सकता है । ५७ सामान्य से जीवस्थान का एक भेद है । क्योंकि जीव कहने से जीवमात्र का ग्रहण हो जाता है । त्रस और स्थावर की अपेक्षा दो भेद; एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय ( पंचेन्द्रिय) की अपेक्षा तीन भेद; यदि इनमें पंचेन्द्रिय www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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