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________________ पंचसंग्रह (१) कहलाते हैं परन्तु द्रव्यमन का उनके साथ सम्बन्ध है इसलिये असंज्ञी भी नहीं कहा जा सकता है । इसी स्थिति को स्पष्ट करने के लिये ग्रंथकार आचार्य ने गाथा में पद दिया है - 'केवलि नोसन्नी नो असन्नी वि' । इसी मंतव्य का समर्थन सप्ततिकाचूर्णि से भी होता है- २०० 'मणकरणं केवलिणो वि अत्थि तेण सन्निणो वुच्चति । मणोविन्नाणं पडच्चते सन्निणो न हवंति त्ति ।' अर्थात् केवली भगवान के मनकरण - द्रव्यमन है, जिससे वे संज्ञी कहलाते हैं, किन्तु मनोविज्ञान की अपेक्षा वे संज्ञी नहीं हैं । केवली भगवान को नोसंज्ञी, नोअसंज्ञी कहने के उक्त कथन का सारांश यह है कि मनोवर्गंणा के पुद्गलों को ग्रहण करके उनके द्वारा विचार करती हुई आत्माएँ संज्ञी कहलाती हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में केवलज्ञान होने से मनोवर्गणा द्वारा विचारकर्तृत्व नहींहै परन्तु केवलज्ञान के द्वारा पदार्थों को जानकर अन्य क्षेत्र में रहे हुए मनपर्याय ज्ञानी अथवा अनुत्तर विमानवासी देवों का उत्तर देने के लिये मनोवर्गणाओं को ग्रहण करते हैं, जिससे उनमें द्रव्यमन है भावमन नहीं हैं । भावमन नहीं होने के कारण संज्ञी भी नहीं कहा जा सकता है, किन्तु द्रव्यमन होने से संज्ञी भी कहा जायेगा । सारांश यह है कि बारहवें गुणस्थान तक मनोवर्गणाओं का ग्रहण और उनके द्वारा मनन परिणाम भी होता है, जिससे वे संज्ञी कहलाते हैं । इसीलिये संज्ञीमार्गणा में आदि के बारह गुणस्थान माने गये हैं । ' तथाअपमत्त वसन्त अजोगि जाव सव्वेवि अविरयाइया । वेयग-उवसम खाइयदिट्ठी मुणेयव्वा ||३३|| कमसो १ भूतपूर्व प्रज्ञापननय की अपेक्षा केवलिद्विक गुणस्थानों को संज्ञी मानने पर संशीमार्गणा में चौदह गुणस्थान भी माने जा सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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