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________________ पंचसंग्रह (१) सम्यग्दृष्टि — होते हैं। क्योंकि आगे के गुणस्थान पाँचवें आदि सब गुणस्थान विरतिरूप हैं । १६८ अब संयम मार्गणा के सामायिक आदि यथाख्यात पर्यन्त पाँच भेदों में गुणस्थान बतलाते हैं । सामान्य नियम यह है कि इनका पालन संयत मुनि करते हैं और उनकी प्राप्ति सर्वसंयम सापेक्ष है परन्तु भेदों की अपेक्षा उनमें पाये जाने वाले गुणस्थान इस प्रकार समझना चाहिए - सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र मार्गणा में छठे प्रमत्तसंयत से लेकर नौवें अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक चार गुणस्थान हैं । क्योंकि ये सरागसंयम होने से ऊपर के गुणस्थानों में नहीं पाये जाते हैं । परिहारविशुद्धिचारितमार्गणा में छठा और सातवां ये दो गुणस्थान हैं । इसका कारण यह है कि परिहारविशुद्धि संयम के रहने पर श्रेणि आरोहण नहीं किया जा सकता है और श्रेणि का आरोहण आठवें गुणस्थान से प्रारम्भ होता है । इसलिये इसमें छठा, सातवाँ गुणस्थान समझना चाहिये । सूक्ष्मसपंराय चारित्र में स्वनाम वाला एक सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान पाया जाता है । क्योंकि दसवां गुणस्थान सूक्ष्मसंपराय है । इसीलिये इसमें अपने नाम वाला एक गुणस्थान कहा है । यथाख्यातसंयममार्गणा में अंतिम चार गुणस्थान होते हैं । क्योंकि मोहनीय कर्म का उदयाभाव होने पर यह चारित्र प्राप्त होता होता है और मोहनीय कर्म का उदयाभाव ग्यारहवें उपशांतमोह गुणस्थान से लेकर चौदहवें अयोगिकेवलिगुणस्थान तक रहने से यथाख्यात चारित्र में अंतिम चार गुणस्थान माने जाते हैं । तथा-अभव्विएस पढमं सव्वाणियरेस दो असन्नीस | सन्नीस बार केवलि नो सन्नी G नो असण्णी वि ||३२|| पढमं - - पहला, सव्वाणियरेसु शब्दार्थ - अम्मविएसु - अभव्यों में, - इतर ( भव्यों) में सभी, दो-दो, असन्नीसु-असंज्ञियों में, सन्नीसु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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