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________________ पंचसंग्रह (१) उदय की अपेक्षा इनमें गुणस्थानों के विचार का कारण यह है fo नौवें गुणस्थान के अंतिम समय में तीन वेद और क्रोधादि तीन संज्वलन कषाय या तो क्षीण हो जाती हैं या उपशांत, इस कारण आगे के गुणस्थानों में इनका उदय नहीं रहता है । परन्तु सत्ता की अपेक्षा इन छहों मार्गणाओं में गुणस्थानों का विचार किया जाये तो ग्यारहवें उपशांतमोहगुणस्थान तक इनकी सत्ता पाये जाने से ग्यारह गुणस्थान होंगे । १६० इसी प्रकार 'लोभंमि जाव सुहमो' - लोभ ( संज्वलन लोभ) का उदय भी दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान तक रहता है । अतएव उदय की अपेक्षा इसमें दस गुणस्थान होंगे और सत्ता तो ग्यारहवें गुणस्थान तक पाई जा सकती है । कृष्णादि छह लेश्याओं में पहले से लेकर चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक चार गुणस्थान होते हैं - ' छल्लेसा जाव सम्मोत्ति' । लेश्या मार्गणा के छह भेदों में यह गुणस्थानों का कथन सामान्य से किया गया है । जिसका विशेष स्पष्टीकरण आगे की गाथा में करते हैं । अपुव्वाइसु सुक्का नत्थि अजोगिम्मि तिन्नि सेसाणं । मीसोएगो चउरो चउरो असंजयासंजया सेसा ॥ ३१॥ शब्दार्थ - अपुव्वाइसु - अपूर्व करणादि में, सुक्का -- शुक्ल लेश्या, नत्थि - नहीं होती है, अजोगिम्मि - अयोग में, तिन्नि-तीन, सेसाणं- शेष गुण घाती कषायों के उदय से युक्त उसका उदय चारित्र का घात करता है । वेद के तीव्र, मंद आदि असंख्य भेद होते हैं । उनमें के कितने ही मंद भेद ऊपर के गुणस्थान में भी प्रतीयमान होते हैं किन्तु अत्यन्त मंद होने से बाधक नहीं होते हैं । गुण For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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