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पंचसंग्रह (१) सव्वेसु वि मिच्छो वाउतेउसुहुमतिग पमोत्तूणं । सासायणो उ सम्मो सन्निदुगे सेस सन्निम्मि ॥२६॥
शब्दार्थ-सम्वेसुधि-सभी जीवों में, मिच्छो-मिथ्यात्व, वाउतेउ सुहममिग-वायु, तेज और सूक्ष्मत्रिक को, पमोत्तूणं -छोड़कर, सासायणोसासादन, उ-और, सम्मो-सम्यक्त्व, (अविरतिसम्यग्दृष्टि) सन्निदुर्गसंज्ञीद्विक में, सेस-शेष, सन्निम्मि-संज्ञी में ।
गाथार्थ-मिथ्यात्वगुणस्थान तो सभी जीवों में होता है । सासादन गुणस्थान वायुकाय, तेजस्काय और सूक्ष्मत्रिक को छोड़कर शेष सभी जीवों में तथा अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान संज्ञीद्विक में और शेष गुणस्थान संज्ञी जीवों में होते हैं ।
विशेषार्थ--कायमार्गणा के छह भेदों में गुणस्थान बतलाने के प्रारम्भ में एक सामान्य सूत्र कहा है
'सव्वेसुवि मिच्छो'-अर्थात् पृथ्वीकाय आदि जसपर्यन्त सभी जीवों में सामान्यतया मिथ्यादृष्टिगुणस्थान होता है ।
अब दूसरे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के तेरह गुणस्थानों का निर्देश करते हैं कि-वायुकायिक, तेजस्कायिक और सूक्ष्मत्रिक-सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त नामकर्म के उदयवाले जीवों को छोड़कर शेष लब्धि-पर्याप्त और करण अपर्याप्त जीवों एवं संज्ञीपर्याप्त जीवों में सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पाया जाता है। क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त सूक्ष्म, साधारण नामकर्म के उदयवाले एकेन्द्रिय आदि में कोई जीव सासादन भावसहित आकर जन्म ग्रहण नहीं करता है। ___ 'सम्मो सन्निदुगे'-संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और पर्याप्त इन दोनों प्रकार के जीवों में अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चौथा गुणस्थान होता है और इनसे शेष रहे गुणस्थान अर्थात् मिश्रदृष्टि और देशविरति से लेकर अयोगिकेवलि पर्यन्त गुणस्थान संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के होते हैं।
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