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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा २८ १८५ तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय के सिवाय कोई भी जीव पर्याप्त अवस्था में सासादन सम्यक्त्व वाला नहीं होता है । क्योंकि औपशमिक सम्यक्त्व पाने वाले जीव संज्ञी ही होते है दूसरे नहीं । इसलिए सासादन सम्यक्त्व मार्गणा में सात जीवस्थान माने जाते हैं । " मिश्र सम्यक्त्वमार्गणा में एक संज्ञी पंचेंन्द्रियपर्याप्त जीवस्थान होता है । क्योंकि संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के सिवाय अन्य जीवों में तथाविध परिणामों की योग्यता नहीं होने से मिश्र - दृष्टि सम्यग्मिथ्यात्व नहीं होती है । इस प्रकार से मार्गणास्थानों के बासठ उत्तर भेदों में जीवस्थानों कथन समझना चाहिए । अब वर्ण्य विषयों में से शेष रहे मार्गणा स्थानों में गुणस्थानों को बतलाते हैं । मार्गणास्थानों में गुणस्थान सुरनारएसु चत्तारि पंच तिरिएसु चोट्स मणूसे । इगिविगलेसु जुयल सव्वाणि पणिदिसु हवंति ॥ २८ ॥ १ यहाँ जो अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि को सासादनसम्यक्त्व का अधिकारी कहा है, वे करण - अपर्याप्त समझना चाहिए, लब्धि अपर्याप्त नहीं । क्योंकि लब्धि- अपर्याप्त जीव तो मिथ्यात्वी ही होते हैं । दिगम्बर आचार्यों ने सासादनसम्यक्त्व में सात के सिवाय आठ व दो जीवस्थान भी माने हैं । सारणसम्म सत्त अपज्जत्ता होंति सण्णि-पज्जत्ता । पंचसंग्रह ४ / १६ की टीका २. दिगम्बर कर्मग्रंथों में प्राप्त मार्गणास्थानों में जीवस्थानों का विचार परिशिष्ट में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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