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पंचसंग्रह (१) अब पूर्व गाथा के विवेचन का विस्तार से विचार करते हैंदोमइसुयंओहिदुगे एक मणनाण केवल विभंगे।
छ तिगं व चक्खुदंसण चउदस ठाणाणि सेस तिगे ॥२७॥ शब्दार्थ-दो-दो, मइ सुयओहिदुर्ग-मति, श्रुत और अवधिद्विक में, एक-एक, मणनाणकेवलविभंगे--मनपर्यायज्ञान, केवलज्ञान और विभंगज्ञान में, छ-छह, तिगं-तीन, व-अथवा, चक्खुदंसण-चक्षु दर्शन, चउदस-चौदह, ठाणाणि-जीवस्थान, सेस तिगे-शेष तीन में ।
गाथार्थ--मति, श्रुत और अवधिद्विक में दो जीवस्थान होते हैं। मनपर्यायज्ञान, केवलज्ञान और विभंगज्ञान में एक तथा चक्षुदर्शन में तीन अथवा छह और शेष रहे अज्ञानत्रिक में सभी चौदह जीवस्थान होते हैं। विशेषार्थ-पूर्वगाथा में किये गये सामान्य निर्देश के अनुसार अब ज्ञान और दर्शन मार्गणा के अवान्तर आठ और चार भेदों में पृथक-पृथक जीवस्थानों को बतलाते हैं ।
'दोमइसुयओहिदुगे'--अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, और अवधिदर्शन इन चार मार्गणाओं में पर्याप्त-अपर्याप्त संज्ञी
संज्ञित्व माना है
मणसहियाणं वयणंदिळं तप्पुव्वमिदिसजोगम्हि । उत्तो मणो वयरिणिदिय णाणेण हीणम्हि ।।
--- गोम्मटसार जीवकांड २२७ छद्मस्थ मनसहित जीवों का वचन प्रयोग मनपूर्वक होता है । इसलिए इन्द्रियज्ञान से रहित केवली भगवान में भी उपचार से मन माना जाता है । इसलिए केवली के अयोगि होने पर भी उन को संज्ञी कहते हैं। For Private & Personal Use Only
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