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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा २५ १७७ को तीनों प्रकार के सम्यक्त्व वाला कहा है । तत्सम्बन्धी पाठ इस प्रकार है ' पणवीस सत्तावीसोदया देव नेरइए पडुच्च । नेरइगो खइगवेयगसम्मंदिट्ठी, देवो तिविह सम्मदिट्ठी वि।' 'अर्थात् - पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान देव और नारकों की अपेक्षा होते हैं, उनमें नारक क्षायिक और वेदक सम्यग्दृष्टि और देव तीनों ( क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक) सम्यक्त्व वाले होते हैं । इन दोनों उदयस्थानों में से पच्चीस प्रकृतिक- उदयस्थान शरीरपर्याप्ति के निर्माण समय में और सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त और शेष पर्याप्तियों से अपर्याप्त को होता है । इस प्रकार यह दोनों उदयस्थान अपर्याप्त अवस्था में होने से यहां भी अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व को ग्रहण किया है । तत्त्व तो केवलज्ञानीगम्य है ।" १ दिगम्बर साहित्य में उपशमश्रेणिभावी - - उपशम सम्यक्त्व जीवों को अपर्याप्त अवस्था में होता है इसी मत को माना है— विदियुवसमसम्मत्तं सेढी दो दिण्णि अविरदादीसु । सग सग लेस्सायरिदे देव अपज्जत्तगेव हवे ॥ - गो० जीवकांड, गाथा ७२६ उपशमश्रेणि से उतरकर अविरत आदि गुणस्थानों को प्राप्त करने वालों में से जो जीव अपनी-अपनी लेश्या के अनुसार मरण करके देव पर्याय को प्राप्त करता है, उसी को अपर्याप्त अवस्था में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ( उपशमश्रेणिभावी होता) है । ग्रंथकार आचार्य ने इसी अपेक्षा से संभवतः सम्यक्त्व में संज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त यह दो जीवस्थान माने हों। लेकिन प्रथमोपशम सम्यक्त्व की अपेक्षा जीवस्थानों का विचार किया जाये तो एक संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान होगा। क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व के समय आयुबंध, मरण आदि नहीं होता है । जैसाकि ऊपर कहा है--' अणबंधोदय माउग' इत्यादि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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