SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा २५ १७५ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को अपर्याप्त अवस्था में मानने का कारण यह है कि भावी तीर्थंकर आदि जब देवगति से च्युत होकर मनुष्यजन्म ग्रहण करते हैं तब वे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सहित होते हैं । इस प्रकार क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में पर्याप्त-अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय रूप दो जीवस्थान होते हैं तथा औपशमिक सम्यक्त्व के लिए यह समझना चाहिये कि आयु पूर्ण हो जाने पर जब कोई औपशमिक सम्यग्दृष्टि ग्यारहवें गुणस्थान में मरण करके अनुत्तर विमान में पैदा होता है तब अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है । औपशमिक सम्यक्त्वमार्गणा में भी दो जीवस्थानों का निर्देश करने पर जिज्ञासु पूछता है प्रश्न - क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सहित भवान्तर में जाना संभव होने से इन दोनों सम्यक्त्वों में तो संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त यह जीवस्थान माना जा सकता है, परन्तु औपशमिक सम्यक्त्व में संज्ञी अपर्याप्त जीवस्थान कैसे घटित होगा ? क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में तद्योग्य अध्यवसाय का अभाव होने से कोई भी नया सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है । कदाचित् यह कहा जाये कि अपर्याप्त अवस्था में भले ही नया सम्यक्त्व उत्पन्न न हो, परन्तु क्षायिक, क्षायोपशमिक की तरह परभव से लाया हुआ अपर्याप्त अवस्था में हो तो उसका निषेध कौन कर सकता है ? परन्तु यह कथन भी अयोग्य है । क्योंकि जो मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्वगुणस्थान में तीन करण करके औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है, वह जब तक हो तब तक कोई जीव मरण नहीं करता है और आयु को भी नहीं बांधता है । जैसा कि आगमों में कहा है अणबंधो वयमाउगबधं कालं च सासणो कुणइ । उवसमसम्मदिट्ठी चउण्हमेकंपि न कुणइ ॥ अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि अनन्तानुबंधी का बंध, अनन्तानुबधी का उदय, आयु का बंध और मरण इन चार कार्यों को करता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy