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________________ पंचसंग्रह (१) गतिमार्गणा के चार भेदों में जीवस्थानों का विचार करने के पश्चात् अब इन्द्रियमार्गणा के भेदों में जीवस्थानों को बतलाते हैं इन्द्रियमार्गणा--'एगिदिएसु चउरो'-अर्थात् एकेन्द्रियमार्गणा में अपर्याप्त-पर्याप्त सूक्ष्म, बादर एकेन्द्रिय रूप चार जीवस्थान होते हैं। क्योंकि इनके सिवाय अन्य किसी जीवस्थान में एकेन्द्रिय जीव नहीं पाये जाते हैं तथा 'विगलपणिदीसु छच्चउरो'-अर्थात् विकलेन्द्रियत्रिकद्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इन्द्रियमार्गणा के इन तीन भेदों में अपर्याप्त-पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय रूप छह जीवस्थान होते हैं । क्योंकि ये पर्याप्त-अपर्याप्त के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। इसलिए द्वीन्द्रिय के दो-अपर्याप्त-पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय के दो--अपर्याप्त-पर्याप्त त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के दोअपर्याप्त-पर्याप्त चतुरिन्द्रिय जीवस्थान होते हैं । जिनका योग छह है। इसीलिये विकलेन्द्रियत्रिक में छह जीवस्थान माने हैं और पंचेन्द्रियमार्गणा में अपर्याप्त संज्ञी, पर्याप्त संज्ञी, अपर्याप्त असंज्ञी, पर्याप्त असंज्ञी यह चार जीवस्थान होते हैं। सिंघाणेसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा पूएसु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा - सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोगेसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु एत्थ वा सम्मुच्छिम मणुस्सा समुच्छंति अंगुलस्स असंखेज्जभागमित्ताए ओगाहणाए, असन्नी मिच्छादिट्ठी अन्नाणी सव्वाहिं पज्जत्तीहिं अपज्जत्तगा अंतोमुहुत्तद्धाउया चेव कालं करंति त्ति । दिगम्बर कर्मग्रन्थों में मनुष्यगति में संज्ञी पर्याप्त-अपर्याप्त ये दो जीवस्थान माने हैं। शेष तीन गतिमार्गणाओं के जीवस्थानों की संख्या में अन्तर नहीं है-णिरयणरदेवगइसुसण्णीपज्जत्तया अपुण्णा य । -पंचसंग्रह, शतकाधिकार गा. ८ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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