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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१८ १३१ की आच्छादन शक्ति के तारतम्य एवं अल्पाधिक तथा समग्र रूपेण दूर होने पर प्रगट हुए ज्ञानादि गुणों के स्थान-भेद, स्वरूपविशेष को गुणस्थान कहा जाता है । आत्मगुणों में शुद्धि के अपकर्ष और अशुद्धि के उत्कर्ष के कारण आस्रव और बंध हैं एवं अशुद्धि के अपकर्ष और शुद्धि के उत्कर्ष के हेतु संवर और निर्जरा हैं । आस्रव के द्वारा कर्मावरण के आने और बंध के कारण दूध-पानी अथवा अग्नि-लोहपिण्डवत् आत्मा के साथ संबंध होते जाने से आत्मगुणों पर आवरण गाढ़ा होता जाता है। जिससे अशुद्धि का उत्कर्ष होता है । लेकिन संवर के द्वारा नवीन कर्ममल के आगमन का निरोध होने तथा निर्जरा द्वारा पूर्वसंबद्ध मल का क्षय होते जाने से गुणों की शुद्धि में उत्कर्षता और अशुद्धि में अपकर्षता अथवा न्यूनता आती जाती है । जिससे जीवों की पारिणामिक शुद्धि और गुणों में उत्तरोत्तर अधिकता, वृद्धि और विकास होता जाता है। आत्मगुणों के इसी विकासक्रम को गुणस्थान कहते हैं । १ । १ तन गुणाः ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपा जीवस्वभावविशेषाः, स्थानं पुनरत्र तेषां शुद्ध यशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरूपभेदः तिष्ठन्त्यस्मिन् गुणा इतिकृत्वा यथाऽध्यवसायस्थानमितिगुणानां स्थानं गुणस्थानमिति ।। -कर्मस्तव, गोविन्दगणिवृत्ति पृ. २ दिगम्बर कर्मग्रंथों में गुणस्थान का लक्षण इस प्रकार बतलाया है जेहिं दु लक्खिज्जते उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरसीहिं॥ दर्शनमोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्था के होने पर होने वाले जिन परिणामों से युक्त जो जीव देखे जाते हैं, उन जीवों को सर्वज्ञ ने उसी गुणस्थान वाला और उन भावों (परिणामों) को गुणस्थान कहा है। -गोम्मटसार जीवकांड ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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