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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१८ ૧૨૩ गुणस्थानों में योग-विचारणा जीवस्थानों और मार्गणास्थानों में योगों और उपयोगों का विस्तार से निरूपण करने के पश्चात् अब क्रमप्राप्त गुणस्थानों में उनका कथन करते हैं । लेकिन पूर्व में जैसे सर्वत्र पहले योगों का और उसके पश्चात् उपयोगों का विधान किया है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले गुणस्थानों में योगों को बतलाते हैं-- जोगाहारदुगूणा मिच्छे सासायणे अविरए य । अपुव्वाइसु पंचसु नव ओरालो मणवई य ॥१६॥ वेउविणाजुया ते मीसे साहारगेण अपमत्ते । देसे दुविउविजुया आहारदुगेण य पमत्ते ॥१७॥ अज्जोगो अज्जोगी सत्त सजोगंमि होंति जोगा उ । दो दो मणवइजोगा उरालदुगं सकम्मइगं ॥१८॥ शब्दार्थ-जोगा-योग, आहारदुगूणा-आहारकद्विक से न्यून (रहित), मिच्छे-मिथ्यात्व में, सासायणे--सासादन में, अविरए-अविरतसम्यग्दृष्टि में, य-और, अपुव्वाइसु पंचसु-अपूर्व करणादि पांच में, नव-नौ, ओरालो-औदारिक, मणवई---मन और वचन योग, य-और।। __वेउविणा-वैक्रिययोग से, जुया-सहित, ते-वे, मीसे-मिश्रगुणस्थान में, साहारगेण--आहारकसहित, अपमत्त-अप्रमत्त में, देसे-देशविरत में, दुविउविजुया-वैक्रिय द्विकसहित, आहारदुर्गण-आहारकद्विक से, य-और पमत्त-प्रमत्तविरतगुणस्थान में । ___ अज्जोगो-योगरहित, अज्जोगी-अयोगिगुणस्थान, सजोगंमि-सयोगि में, होति--होते हैं, जोगा-योग, उ--तथा, दो-दो-दो, दो, मणवइजोगामनोयोग और वचनयोग, उरालदुर्ग-औदारिकद्विक, सकम्मइगं-कार्मणयोग सहित । गाथार्थ-मिथ्यात्व, सासादन और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में आहारकद्विक रहित तेरह योग होते हैं। अपूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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