________________
पंचसंग्रह ( १ )
'संतेव अचक्खुचक्खुसु' अर्थात् चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और 'चक्खूसु' शब्द में बहुवचन के निर्देश द्वारा अवधिदर्शन का भी ग्रहण करने से इन तीनों दर्शनों के साथ सम्यक्त्वनिमित्तक और मिथ्यात्वनिमित्तक दोनों प्रकार के उपयोग होते हैं ।"
११८
उपर्युक्त नियमों के अनुसार अब शेष रहे मार्गणास्थानों में उपयोगों को बतलाते हैं ।
मति, श्रुत, अवधि और मनपर्याय ज्ञान, सामयिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसंपराय चारित्र, क्षयोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्व इन दस मार्गणाओं में केवलद्विक और अज्ञानत्रिक के सिवाय शेष सात उपयोग होते हैं । इसका कारण यह है कि ये मार्गणायें चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान पर्यन्त नौ गुणस्थानों में पाई जाती हैं । इसलिये इन मार्गणाओं में मिथ्यात्व का अभाव होने से तीन अज्ञान -- मति- अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान नहीं होते हैं तथा इनमें क्षायोपशमिक भाव होते हैं अतः क्षायिक भाव रूप केवलद्विक - केवलज्ञान, केवलदर्शन यह दो उपयोग संभव नहीं हैं । इसीलिए अज्ञानत्रिक और केवलद्विक इन पांच उपयोगों के सिवाय तीन दर्शन - चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन तथा चार ज्ञान - मति, श्रुत, अवधि, मनपर्यायज्ञान कुल सात उपयोग पाये जाते हैं ।
।
बता सकते हैं । लेकिन पूर्व की तरह मतिज्ञानादि का कारण केवलज्ञानावरण मानें तो उस कारण के नष्ट होने से अनावृतप्रकाश में पहले का प्रकाश समा जाता है, यानी मतिज्ञानादि ज्ञान हो ही नहीं सकते हैं । इसलिए अन्य आचार्यों के मत से पांच ज्ञान और उनके आवरण भिन्नभिन्न हैं यह समझना चाहिये ।
२ चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन में सम्यक्त्व, मिथ्यात्व निमित्तक सभी उपयोग होने का कथन सामान्य से समझना चाहिये । केवलद्विक उपयोग इनमें नहीं होते हैं । जिसका स्पष्टीकरण आगे किया जा रहा है :
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org