SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १५ ११५ उपयोग, केवलदुगेण — केवलद्विक के साथ, सेसा - शेष, संतेव होते ही हैं, अचक्खुचक्खूसु–अचक्ष, दर्शन, चक्ष ु दर्शन में (के साथ) । गाथार्थ -- सम्यक्त्वनिमित्तक उपयोगों के साथ मिथ्यात्वनिमित्तक उपयोग तथा केवलद्विक के साथ अन्य कोई उपयोग नहीं होते हैं किन्तु अचक्षु दर्शन और चक्षु दर्शन के साथ उभयनिमित्तक (सम्यक्त्व, मिथ्यात्व निमित्तक) उपयोग होते ही हैं । विशेषार्थ - - गाथा में सहभावी उपयोगों के कारण को स्पष्ट किया है । सम्यक्त्व निमित्त कारण है जिनका ऐसे मतिज्ञान आदि उपयोगों के साथ मिथ्यात्वनिमित्तक मति अज्ञान आदि उपयोग नहीं होते हैं तथा 'केवल दुगेण सेसा न होंति उवओगा' केवलद्विक - केवलज्ञान, केवलदर्शन के साथ मिथ्यात्वनिमित्तक उपयोग तो हो ही नहीं सकते, किन्तु सम्यक्त्वनिमित्तकों में से भी छामस्थिक मतिज्ञान आदि कोई भी उपयोग नहीं होते हैं । क्योंकि देशज्ञान और देशदर्शन का विच्छेद होने पर ही पूर्ण - केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न होते हैं । जैसा कि कहा उप्पन्नंमि अनंते नट्ठमि य छाउमत्थिए नाणे । ' अर्थात् - छाद्मस्थिक ज्ञान और दर्शनों के नष्ट होने पर अनन्त ज्ञान- दर्शन - केवलज्ञान - केवलदर्शन उत्पन्न होते हैं । छामस्थिक ज्ञान - दर्शनों के नाश के पश्चात् केवल ज्ञान दर्शन की उत्पत्ति होने को लेकर जिज्ञासु प्रश्न पूछता है— प्रश्न - मतिज्ञानादि ज्ञान और चक्ष ु दर्शन आदि दर्शन अपने-अपने आवरणों के यथायोग्य रीति से क्षयोपशम होने पर उत्पन्न होते हैं । अतः जब पूर्ण रूप से उनके आवरणों का क्षय हो तब चारित्रपरिणाम की तरह उनको भी पूर्ण रूप से उत्पन्न होना चाहिए, तो फिर केवल १ आवश्यक निर्यु क्ति ५३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy