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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ६-१२ ६५ समय में सत्तारूप और योगरूप यथायोग्य विवक्षा से संसारी जीवों में कार्मण काययोग का सद्भाव समझना चाहिए । अपान्तरालगति और केवलिसमुदुघात में मात्र कार्मणकाययोग प्राप्त होने के उक्त कथन पर जिज्ञासु पूछता है प्रश्न - विग्रहगति और केवलिसमुद्घात में मात्र कार्मण काययोग पाया जाता हो, लेकिन यहाँ मार्गणास्थानों में योगों की प्ररूपणा की जा रही है तो इन दोनों का किस मार्गणा में समावेश किया जायेगा ? उत्तर - यद्यपि यह दोनों साक्षात मार्गणायें नहीं हैं और न मार्गणाओं के अवान्तर भेद हैं, किन्तु कार्मण काययोग की विशेष स्थिति बतलाने एवं गति, इन्द्रिय, काय, वेद और संज्ञी, असंज्ञी जीवों के अपान्तरालगति में भी अपने-अपने नाम से कहलाने के कारण का -बोध कराने की दृष्टि से यह कथन समझना चाहिये । कदाचित् यह कहो कि अपने-अपने नाम वाले कैसे कहलाते हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि अपनी-अपनी आयु के उदय के कारण । जैसी कि आगम में उनकी काय स्थिति बतलाई है एगिंदियाणणता दोण्णिसहस्सा तसाण कायठिति । अयराण इग र्पाणिदिसु नरतिरियाणं सगट्ठ भवा ॥ पुरिसत्त सणित सयपुहत्तं तु होइ अयराणं । थी पलिययपुहुत्त नपुंस अनंतद्धा ॥ यदि अन्तरालगति में उक्त गति आदि का व्यपदेश प्राप्त न हो तो इतनी कायस्थिति घटित नहीं होती है और उसके घटित न होने से महान दोष होगा। क्योंकि उस समय में (विग्रहगति में ) इन्द्रिय आदि तो होती नहीं हैं । इसलिये यह समझना चाहिये कि सप्रभेद इन पांच मार्गणा वाले जीवों के विग्रहगति में तथा केवली अवस्था में प्राप्त केवलज्ञान, केवलदर्शन और यथाख्यातसंयम मार्गणाओं में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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