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________________ ६० पंचसंग्रह (१) करता है उसे अनाहारक - अनाहारी कहते हैं। आहारी के ग्रहण से उसके प्रतिपक्षी अनाहारी का भी ग्रहण किये जाने से आहारमार्गणा के दो भेद इस प्रकार हैं - १. आहारी और २. अनाहारी । औदारिक आदि तीन शरीरों और आहार, शरीर आदि छह पर्याप्तियों के योग्य अथवा उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को आहार कहते हैं । दिगम्बर साहित्य में (गोम्मटसार जीवकांड में) आहार का लक्षण इस प्रकार बताया है उदय वणसरीरोदयेण तद्द हवयणचित्ताणं । णोकम्मवग्गणाणं गहणं आहारयं णाम ।। ६६३ शरीर नामकर्म के उदय से शरीर, वचन और द्रव्यमन रूप बनने के योग्य नोकर्म वर्णणा का जो ग्रहण होता है, उसे आहार कहते हैं । ओज आहार आदि के लक्षण इस प्रकार हैं सरिरेणोयाहारो तयाइ फासेण लोमआहारो ॥ पक्खेवाहारी पुण कवलिओ होइ नायव्वो || --प्रवचनसारोद्धार गा. १९८० गर्भ में उत्पन्न होने के समय जो शुक्र शोणित रूप आहार कार्मण शरीर के द्वारा ग्रहण किया जाता है, उसे ओज- आहार, स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा जो ग्रहण किया जाता है, उसे लोम और जो अन्न आदि खाद्य मुख द्वारा ग्रहण किया है, उसे कवलाहार ( प्रक्षोपाहार ) कहते हैं । दिगम्बर साहित्य में आहार के छह भेद बताये हैं णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य लेप्यमाहारो । ओजमणो वि य कमसो आहारो छव्विहो यो । - प्रमेयकमलमार्तण्ड, द्वितीय परिच्छेद नोकर्म, कर्म, कवल, लेप्य, ओज और मानस, आहार के क्रमशः ये छह भेद हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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