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________________ ८२ मार्गणास्थानों में योग निर्देशानुसार जीवस्थानों में योग और उपयोग का विवेचन करने के पश्चात् अब क्रमप्राप्त मार्गणास्थानों में योगों और उपयोगों का कथन करना इष्ट है । इनमें योगों का क्रम प्रथम है, अतः उन्हीं का विचार प्रारम्भ करते हैं पंचसंग्रह (१) इगिविगलथावरेसु न मणो दो भेय केवलदुगम्मि | इगिथावरे न वाया विगलेसु असच्चमोसेव || ६ || सच्चा असच्चमोसा दो दोसुवि केवलेसु भासाओ । अंतरगइ केवलिएसु कम्मयन्नत्थ तं विवक्खाए ||१०|| मणनाणविभंगेसु मीसं उरलंपि नारयसुरेसु । केवलथावरविगले वेउव्विदुगं न संभवइ ||११|| आहारदुगं जायइ चोट्सपुव्विस्स इइ विसेसणओ । मणुयगइपंचेंदियमाइएसु समईए जोएज्जा ॥१२॥ शब्दार्थ – इगिविगलथावरेसु - एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और स्थावरों में, न- नहीं, मणो मनोयोग, दो भेष – दो भेद, केवलदुगम्मि केवलद्विक में, इगिथावरे - एकेन्द्रिय और स्थावरों में, न - नहीं, वाया - -वचनयोग, विगलेसु-विकलेन्द्रियों में, असच्चमोसेव -असत्यामृषा ही । सच्चा - सत्य, असच्चमोसा- असत्यामृषा, दो-दो, दोसुवि-दोनों ही, केवलेसु - केवल मार्गणाओं में, भासाओ - भाषायें ( वचनयोग), अन्तरगइ - अन्तरगति (विग्रहगति), केवलिएसु - केवलि (केवलिसमुद्रघात) में, कम्मय् — कार्मणयोग, अन्नत्थ -- अन्यत्र, तं - वह, विवक्खाएविवक्षा से | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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