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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ८
७३ पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि पूर्वोक्त ग्यारह जीवस्थानों में मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान अचक्षुदर्शन ये उपयोग कार्मग्रंथिकों के मतानुसार हैं, सैद्धान्तिक मत के अनुसार नहीं तथा यहाँ अपर्याप्त का अर्थ लब्धि-अपर्याप्त समझना चाहिए।' अन्यथा करण-अपर्याप्त चतुरिन्द्रियादि में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद चक्षुदर्शन भी होता है । करण-अपर्याप्त संज्ञी को तो मति, श्रुत, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन और विभंगज्ञान भी होता है।
सिद्धान्त के मतानुसार तो सभी प्रकार के एकेन्द्रियों में, चाहे वे बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त हों-पहला मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है । किन्तु द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय, इन चार अपर्याप्त जीवस्थानों में पहला, दूसरा ये दो गुणस्थान होते हैं । साथ ही सिद्धान्त में दूसरे गुणस्थान के समय मति आदि को अज्ञान रूप न मानकर ज्ञान रूप माना है । अतएव सिद्धान्त के मतानुसार द्वीन्द्रिय आदि उक्त चार अपर्याप्त जीवस्थानों में अचक्षुदर्शन, . मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान ये पांच उपयोग होते हैं । शेष में अचक्षुदर्शन, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान यह तीन उपयोग समझना चाहिए।
१ (क) एते च लब्ध्यपर्याप्तकाः, यतः करणापर्याप्तकेष्विन्द्रियपर्याप्ती सत्यां तेषां चक्ष दर्शनं भवति ।
-पंचसंग्रह १।८ स्वोपज्ञ वृत्ति (ख) दिगम्बर कार्मग्रन्थिकों का भी यही अभिमत है
मइसुअअण्णाणाइं अचक्खु एयारसेसु तिण्णेव । सूक्ष्म-बादर एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियाः पर्याप्तापर्याप्ताः एतेऽष्टौ, चतुःपञ्चेन्द्रिय संज्यऽसंज्ञिनः अपर्याप्तस्त्रयः एव मेकादश जीवसमासेषु मतिः श्रु ताज्ञाने हे', अचक्ष दर्शनमेकं, इति त्रयः उपयोगाः भवन्ति ।
-दिगम्बर पंचसंग्रह ४/२२
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