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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ७ वालों को वैक्रियकाययोग होगा। शरीरपर्याप्ति पूर्ण हो जाती है, तभी से मिश्रयोग नहीं रहता है।' । ___इस मत के अनुसार सूक्ष्म एकेन्द्रियादि छह अपर्याप्त जीवस्थानों में कार्मण, औदारिकमिश्र और औदारिक, यह तीन कयियोग और अपर्याप्त संज्ञी पंचेद्रिय में कार्मण आदि उक्त तीन के साथ वैक्रियमिश्र तथा वैक्रिय, इन दो योगों को मिलाने से कुल पांच योग होते हैं ।
इस मतान्तर को कार्मग्रंथिक और सैद्धान्तिक मतभिन्नता भी कह सकते हैं। क्योंकि सिद्धान्त में शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होने पर शरीर की निष्पत्ति मानकर यथायोग्य जीवों को औदारिककाययोग और वैक्रियकाययोग माना है और कार्मग्रंथिकों ने सर्व पर्याप्तियों के पूर्ण होने से बने हुए को औदारिक, वैक्रिय काययोग । क्योंकि उनके मतानुसार जब तक इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति पूर्ण न हों तब तक शरीर अपूर्ण रहता है और कार्मण काययोग का व्यापार चालू रहता है। इसीलिये औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र काययोग मानना युक्ति संगत है।
उक्त मतभिन्नता के अतिरिक्त अन्य जीवस्थानों में संभव योग सम्बन्धी मतभेद नहीं है।
तीन राशि-सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त इन तीन राशि के जीवों में वैक्रियलब्धि होती ही नहीं है और बादर पर्याप्त वायुकाय में से उसके संख्यातवें भाग जीवों में वैक्रियलब्धि संभव है। (ख) ....."तेजोवायुकायिक पंचेन्द्रिय--तिर्यग्मनुष्यानां च केषांचित् ।
-तत्त्वार्थ राजवार्तिक २/४६ १ औदारिककाययोगस्तिर्यड्.मनुष्ययोः शरीरपर्याप्तेरुर्ध्वम् तदितरस्तु मिश्रः ।
--आचारांग १ / २ / १ की टीका २ दिगम्बर कार्मग्रन्थिकों द्वारा विवेचित जीवस्थानों में योगों का विचार
परिशिष्ट में देखिये।
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