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________________ ६८ पंचसंग्रह (१) बताया था। जिसको यहाँ स्पष्ट किया है कि उनको औदारिककाययोग जानना चाहिये और पर्याप्त देव और नारकों को वैक्रियकाययोग होता है तथा पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवस्थान में औदारिक, वैक्रिय और वैक्रियमिश्रकाययोग यह तीन योग माने जाने का कारण यह है कि पृथ्वी, जल आदि पाँचों स्थावर बादर एकेन्द्रिय तिर्यंच हैं और तिर्यंचों का औदारिक शरीर होता है, अतः पर्याप्त अवस्था में औदारिककाययोग होता ही है। लेकिन बादर वायुकायिक जीवों के वैक्रियलब्धि होती है, इसलिए जब वे वैक्रिय शरीर बनाते हैं तब वैक्रिय मिश्रकाययोग और वैक्रिय शरीर पूर्ण बन जाने पर वैकियकाययोग होता है। ___'पज्जत ओरालो वेउव्विय मीसगो वा वि' पद से यही आ गय स्पष्ट किया गया है तथा गाथा के अन्त में आये (वि) अपि शब्द से यह अर्थ भी ग्रहण करना चाहिए कि आहारकलब्धिसंपन्न चौदह पूर्वधर को आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग भी होता है । मतान्तर से जीवस्थानों में योग जीवस्थानों में योग-विचार के प्रसंग में कितने ही आचार्यों का मत है कि शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने से पहले मनुष्य और तिर्यंचों के औदारिकमिश्र और देव, नारकों के वैक्रियमिश्र तथा शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पश्चात् शेष पर्याप्तियों से अपर्याप्त मनुष्य और तिर्यचों के औदारिक तथा देव, नारकों के वैक्रियकाययोग होता है । एतद् विषयक अन्यकर्त क गाथा इस प्रकार है कम्मुरलदुगमपज्जे बेउविदुगं च सनिलद्धिल्ले । पज्जेसु उरलोच्चिय वाए वेउव्वियदुगं च ॥ शब्दार्थ -कम्मुरलदुर्ग-कार्मण औदारिकद्विक, अपज्जे -- अपर्याप्त में, बेउविदुगं- वैक्रियद्विक, सनिलद्धिल्ले-लब्धियुक्त संज्ञी में, पज्जेसु-पर्याप्त में, उरलोच्चिय-औदारिककाययोग ही, वाए --वायुकाय में, वेउव्वियदुर्गवैक्रियद्विक, च--और। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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