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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ : गा० ३ १७ यहाँ कुछ कम का मतलब आठ वर्ष, सात मास और अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । सत्तास्थानों के स्वामी, काल आदि का विवरण इस प्रकार है । काल सत्तास्थान मूलप्रकृति स्वामी आठ प्रकृतिक सभी सात प्रकृतिक मोहनीय के बिना आदि के ११ गुणस्थान क्षीणमोह गुणस्थान जघन्य अनादि सान्त , १. घातिकर्मचतुष्टयक्षये च चतसृणां सत्ता उत्कर्षेण पुनर्देशोनपूर्व कोटिमाना । २. तुलना कीजिये - Jain Education International अन्तर्मुहूर्त अट्ठविहसत्त छन्बंधगेसु अट्ठेव एगविहे तिविगप्पो एगविगप्पो चार प्रकृतिक ४ अघाति १३वाँ १४वाँ अन्तर्मुहूर्त देशोन पूर्वकोटि गुणस्थान इस प्रकार मूल प्रकृतियों के पृथक्-पृथक् बन्ध, उदय और सत्ता प्रकृति स्थानों को समझना चाहिए । अब आगे की गाथा में मूलकर्मों के संवेध भंगों का कथन करते हैं । मूलकर्मों के संवेध भंग उत्कृष्ट अनादि-अनन्त अन्तर्मुहूर्त उदयसंताई । अबंधम्मि || ३ || 2 सा च जघन्ये नान्तर्मुहूर्तप्रमाणा, - सप्ततिका प्रकरण टीका, १४३ अट्ठविहसत्तछब्बंध गेसु अट्ठेव उदयकम्मंसा । विहे तिवियप्पो एय वियप्पो अबंधम्मि ॥ गो० कर्मकाण्ड, ६२८ - मूल प्रकृतियों में से ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के बन्ध वाले अथवा सात प्रकार के बन्ध वाले या छह प्रकार के बन्ध वाले जीवों के उदय और सत्त्व आठ-आठ प्रकार का जानना । जिसके एक प्रकार मूल प्रकृति का बन्ध है उसके तीन भेद होते हैं । जिसके एक प्रकृति का भी बन्ध नहीं होता उसके उदय और सत्त्व चार-चार प्रकार के होने से एक ही विकल्प है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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