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________________ पारिभाषिक शब्द-कोष विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति को योग कहा जाता है । योगस्थान-स्पर्द्धकों के समूह को योगस्थान कहते हैं । योजन-चार गव्यूत या आठ हजार धनुष का एक योजन होता है । रति मोहनीय-जिस कर्म के उदय से सकारण या अकारण पदार्थों में राग प्रेम हो। रयरेणु-आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु होता है । रस-गौरव-मधुर, अम्ल आदि रसों से अपना गौरव समझना । रसघात-बंधे हुए ज्ञानावरण आदि कर्मों की फल देने की तीव्र शक्ति को अपवर्तनाकरण के द्वारा मंद कर देना । रस नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर में तिक्त, मधुर आदि शुभ, अशुभ . रसों की उत्पत्ति हो। रसबंध-जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में फल देने की न्यूनाधिक . शक्ति का होना। रसविपाको-रस के आश्रय अर्थात् रस (अनुभाग) की मुख्यता से निर्दिश्यमान विपाक जिस प्रकृति का होता है, उस प्रकृति को रस विपाकी कहते हैं। रसाणु-पुद्गल द्रव्य की शक्ति का सबसे छोटा अंश । रसोदय-बंधे हुए कर्मों का साक्षात् अनुभव करना । राज-प्रमाणांगुल से निष्पन्न असंख्यात कोटा-कोटी योजन का एक राजू होता ___ है। अथवा श्रेणि के सातवें भाग को राजू कहते हैं । हमस्पर्श नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर बाल जैसा रूखा ऋजुमति मनःपर्यायज्ञान---दूसरों के मन में स्थित पदार्थ के सामान्यस्वरूप को जानना। ऋद्धि गौरव-धन, सम्पत्ति, ऐश्वयं को ऋद्धि कहते हैं और उससे अपने को महत्त्वशाली समझना ऋद्धि गौरव है । अचमनारायसंहनन नामकर्म-जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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