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________________ पारिभाषिक शब्द - कोष प्रमत्तसंयत--जो जीव पापजनक व्यापारों से विधिपूर्वक सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं, वे संयत ( मुनि) हैं लेकिन संयत भी जब तक प्रमाद का सेवन करते हैं तब तक प्रमत्तसंयत कहलाते हैं । ૪૪ प्रमत्तसंयत गुणस्थान---प्रमत्तसंयत के स्वरूप विशेष को कहते हैं । प्रमाणांगुल - उत्सेधांगुल से अढाई गुणा विस्तार वाला और चारसो गुण लम्बा प्रमाणांगुल होता है । प्रमाद-- आत्मविस्मरण होना, कुशल कर्मों में आदर न रखना, कर्त्तव्य - अकर्त्तव्य की स्मृति के लिए सावधान न रहना । प्रयुत- चौरासी लाख प्रयुतांग का एक प्रयुत होता है । प्रयुतांग - चौरासी लाख अयुत के समय को एक प्रयुतांग कहते हैं । प्राभृत श्रुत - अनेक प्राभृत-प्राभृतों का एक प्राभृत होता है । का ज्ञान । उस एक प्राभृत प्राभृत- प्राभृत श्रुत - दृष्टिवाद अंग में प्राभृत-प्राभृत नामक अधिकार हैं उनमें से किसी एक का ज्ञान होना । प्राभृत-प्राभृतसमास श्रुत-दो चार प्राभृत-प्राभृतों का ज्ञान । प्राभृतसमास श्रुत--- एक से अधिक प्राभृतों का ज्ञान । (ब) बन्ध -- मिथ्यात्व आदि कारणों द्वारा काजल से भरी हुई डिबिया के समान पौद्गलिक द्रव्य से परिव्याप्त लोक में कर्मयोग्य पुद्गल वर्गणाओं का आत्मा के साथ नीर-क्षीर अथवा अग्नि और लोहपिंड की भाँति एकदूसरे में अनुप्रवेश - अभेदात्मक एकक्षेत्रावगाह रूप संबंध होने को बंध कहते हैं । अथवा - -आत्मा और कर्म परमाणुओं के संबंध विशेष को बंध कहते हैं । अथवा अभिनव नवीन कर्मों के ग्रहण को बंध कहते हैं । बंधकाल - परभव संबंधी आयु के बंधकाल की अवस्था । बंधविच्छेद --- आगे के किसी भी गुणस्थान में उस कर्म का बंध न होना । बंधस्थान - एक जीव के एक समय में जितनी कर्म प्रकृतियों का बंध एक साथ ( युगपत् ) हो उनका समुदाय । बंधहेतु - मिध्यात्व आदि जिन वैभाविक परिणामों ( कर्मोदय जन्य) आत्मा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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