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परिशिष्ट-२
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परावर्तमाना प्रकृति--किसी दूसरी प्रकृति के बंध, उदय अथवा दोनों को रोक
कर जिस प्रकृति का बंध, उदय अथवा दोनों होते हैं। परिहारविशुद्धि संयम--परिहार का अर्थ है तपोविशेष और उस तपोविशेष
से जिस चारित्र में विशुद्धि प्राप्त की जाती है, उसे परिहारविशुद्धि संयम कहते हैं । अथवा जिसमें परिहारविशुद्धि नामक तपस्या की जाती है, वह
परिहारविशुद्धि संयम है। पर्याप्त नामकर्म-पर्याप्त नामकर्म के उदय वाले जीवों को पर्याप्त कहते हैं और
जिस कर्म के उदय से जीव अपनी पर्याप्तियों से युक्त होते हैं, वह पर्याप्त
नामकर्म है। पर्याप्ति--जीव की वह शक्ति जिसके द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उनको
__ आहार, शरीर आदि के रूप में बदल देने का कार्य होता है । पर्याप्त श्रत-उत्पत्ति के प्रथम समय में लब्ध्यपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव
के होने वाले कुश्रु त के अंश से दूसरे समय में ज्ञान का जितना अंश बढ़ता
है, यह पर्यायश्रुत है। पर्याय समास श्रुत---पर्याय श्रुत का समुदाय । पल्य-अनाज वगैरह भरने के गोलाकार स्थान को पल्य कहते हैं। पल्योपम----काल की जिस लम्बी अवधि को पल्य की उपमा दी जाती है, उसको
पल्योपम कहते हैं। एक योजन लम्बे, एक योजन चौड़े एवं एक योजन गहरे गोलाकार कूप की उपमा से जो काल गिना जाता है उसे पल्योपम
कहते हैं। परोक्ष---मन और इन्द्रिय आदि बाह्य निमित्तों की सहायता से होने वाला
पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान । पश्चादानुपूर्वो-अन्त से प्रारम्भ कर आदि तक की गणना करना । पाद---छह उत्सेधांगुल का एक पाद होता है। पाप-जिसके उदय से दुःख की प्राप्ति हो; आत्मा शुभ कार्यों से पृथक् रहे । पाप प्रकृति --जिसका फल अशुभ होता है । पारिणामिको बुद्धि-दीर्घायु के कारण बहुत काल तक संसार के अनुभवों से .
प्राप्त होने वाली बुद्धि । पारिणामिक भाव-जिसके कारण मूल वस्तु में किसी प्रकार का परिवर्तन न । हो किन्तु स्वभाव में ही परिणत होते रहना पारिणामिक भाव है । अथवा...
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