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________________ ३४ पारिभाषिक शब्द-कोष जिन निन्दा-जिन भगवान, निरावरण केवलज्ञानी की निन्दा, गर्दी करना, .. असत्य दोषों का आरोपण करना । ___ जीव-जो द्रव्य प्राण (इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास) और भाव प्राण (ज्ञान, दर्शन आदि स्वाभाविक गुण) से जीता था, जीता है और जीयेगा, उसे जीव कहते हैं। जीवविपाको प्रकृति-जो प्रकृति जीव में ही उसके ज्ञानादि स्वरूप का घात करने रूप फल देती है। जीवसमास-जिन समान पर्याय रूप धर्मों के द्वारा अनन्त जीवों का संग्रह किया जाता है, उन्हें जीवसमास या जीवस्थान कहते हैं । जुगुप्सा मोहनीयकर्म-जिस कर्म के उदय से सकारण या बिना कारण के ही वीभत्स-घृणाजनक पदार्थों को देखकर घृणा उत्पन्न होती है। ज्ञान-जिसके द्वारा जीव त्रिकाल विषयक भूत, वर्तमान और भविष्य सम्बन्धी समस्त द्रव्य और उनके गुण और पर्यायों को जाने । अथवा सामान्यविशेषात्मक वस्तु में से उसके विशेष अंश को जानने वाले आत्मा के व्यापार को ज्ञान कहते हैं। मानावरण कर्म--आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करने वाला कर्म । ज्ञानोपयोग-प्रत्येक पदार्थ को उन-उनकी विशेषताओं की मुख्यता से विकल्प करके पृथक् पृथक् ग्रहण करना । (त) तिक्तरस नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर-रस सोंठ या काली मिर्च जैसा चरपरा हो। तियंच--जो मन, वचन, काय की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनके आहार आदि संज्ञायें सुव्यक्त हैं, निकृष्ट अज्ञानी हैं, तिरछे गमन करते हैं और जिनमें अत्यधिक पाप की बहुलता पाई जाती है, उन्हें तिर्यंच कहते हैं । __जिनको तिर्यचगति नामकर्म का उदय हो, उन्हें तिर्यच कहते हैं । तिर्यचगति नामकर्म-जिस कर्म के उदय से होने वाली पर्याय द्वारा जीव तियंच कहलाता है.। तियंचायु-जिसके उदय से तिर्यंचगति का जीवन व्यतीत करना पड़ता है। तीर्थकर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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