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पारिभाषिक शब्द-कोष
गोत्रकर्म-जो कर्म जीव को उच्च-नीच गोत्र-कुल में उत्पन्न करावे अथवा जिस
कर्म के उदय से जीव में पूज्यता-अपूज्यता का भाव उत्पन्न हो, जीव उच्च
नीच कहलाये। ग्रन्थि-कर्मों से होने वाले जीव के तीव्र राग-द्वेष रूप परिणाम ।
घटिका-साढ़े अड़तीस लव का समय । इसका दूसरा नाम 'नाली' है। घातिकर्म-आत्मा के अनुजीवी गुणों का, आत्मा के वास्तविक स्वरूप का घात
करने वाले कर्म । घातिनी प्रकृति-जो कर्मप्रकृति आत्मिक-गुणों-ज्ञानादिक का घात करती है। धन-तीन समान संख्याओं का परस्पर गुणा करने पर प्राप्त संख्या ।
चक्षुदर्शन-चक्षु के द्वारा होने वाले पदार्थ के सामान्य धर्म के बोध को।
कहते हैं। चक्ष दर्शनावरण कर्म-चक्षु के द्वारा होने वाले वस्तु के सामान्य धर्म के ग्रहण को।
रोकने वाला कर्म । चतुरिन्द्रियजाति नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को चार इन्द्रियां-शरीर,
जीभ, नाक और आँख प्राप्त हों। चतुःस्थानिक-कर्मप्रकृतियों में स्वाभाविक अनुभाग से चौगुने अनुभाग-फलजनक
शक्ति का पाया जाना । चारित्रमोहनीयकर्म-आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति या उसमें रमण करना
चारित्र है । चारित्रगुण को घात करने वाला कर्म चारित्रमोहनीयकर्म
कहलाता है। चूलिका-चौरासी लाख चूलिकांग की एक चूलिका होती है । चूलिकांग-चौरासी लाख-नयुत का एक चूलिकांग होता है । चैत्यनिन्दा-ज्ञान, दर्शन, चारित्र-संपन्न गुणी महात्मा तपस्वी आदि की अथवा
लौकिक दृष्टि से स्मारक, स्तूप, प्रतिमा आदि की निन्दा करना चैत्यनिंदा कहलाती है।
छामस्थिक-वे जीव जिनको मोहनीयकर्म का क्षय होने पर भी अन्य छद्मों
(घातिकमों) का सद्भाव पाया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org