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परिशिष्ट-२ .
क्षपकोणि-जिस श्रेणि में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का मूल से नाश किया
जाता है। क्षमाशीलता-बदला लेने की शक्ति होते हुए भी अपने साथ बुरा बर्ताव करने
वालों के अपराधों को सहन करना। क्रोध के कारण उपस्थित होने पर
भी क्रोध मात्र पैदा न होने देना।। क्षय-विच्छेद होने पर पुन: बंध की सम्भावना न होना । क्षयोपशम-वर्तमान काल में सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय और
आगामी काल की अपेक्षा उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाती स्पर्धकों का उदय क्षयोपशम कहलाता है। अर्थात कर्म के उदयावलि में प्रविष्ट मन्दरस स्पर्धक का क्षय और अनूदयमान रसस्पर्धक की सर्वघातिनी विपाकशक्ति का निरोध या देशघाती रूप में परिणमन व तीव्र
शक्ति का मंदशक्ति रूप में परिणमन (उपशमन) क्षयोपशम है । क्षायिकज्ञान---अपने आवरण कर्म का पूर्ण रूप से क्षय कर देने से उत्पन्न होने
वाला ज्ञान । क्षायिक भाव-कर्म के आत्यन्तिक क्षय से प्रगट होने वाला भाव । क्षायिक सम्यक्त्व-अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क और दर्शनमोहत्रिक इन सात
प्रकृतियों के क्षय से आत्मा में तत्त्व रुचि रूप प्रगट होने बाला परिणाम । क्षायिक सम्यग्दष्टि-सम्यक्त्व की बाधक मोहनीय कर्म की सातो प्रकृतियों का
पूर्णतया क्षय करके सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले जीव । क्षायोधषिक ज्ञान-अपने-अपने आवरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला
शान । झायोपशामक भाव-कर्मों के क्षयोपशम से प्रगट होने वाला भाव । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व-अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यग्
मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से तथा देशघाती स्पर्धक वाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से आत्मा में जो तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप परिणाम होता है उसे क्षायोपशमिक सभ्यक्त्व कहते हैं। मिथ्यात्व मोहनीयकर्म के क्षय तथा उपशम और सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से आत्मा में होने वाले परिणाम को क्षायोप
शामिक सम्यक्त्व कहते हैं।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org