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परिशिष्ट : २
छह कर्मग्रन्थों में आगत पारिभाषिक शब्दों का कोष
(अ)
अंगप्रविष्ट श्रुत-जिन शास्त्रों की रचना तीर्थंकरों के उपदेशानुसार गणधर . स्वयं करते हैं । अंगोपांग नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव के अंग और उपांग आदि रूप
में गृहीत पुद्गलों का परिणमन होता है । अंगबाह्यश्रुत-गणधरों के अतिरिक्त अंगों का आधार लेकर स्थविरों द्वारा
प्रणीत शास्त्र । अक्षर-ज्ञान का नाम अक्षर है और ज्ञान जीव का स्वभाव होने के कारण श्रुत- ज्ञान स्वयं अक्षर कहलाता है । अक्षर श्रुत-अकारादि लब्ध्यक्षरों में से किसी एक अक्षर का ज्ञान । अक्षरसमास श्रुत-लब्ध्यक्षरों के समुदाय का ज्ञान । अकाम निर्जरा-इच्छा के न होते हुए भी अनायास ही होने वाली कर्म
निर्जरा। अकुशल कर्म-जिसका विपाक अनिष्ट होता है। अगमिक शुत-जिसमें एक सरीखे पाठ न आते हों। अगुरुलधु द्रव्य-चार स्पर्श वाले सूक्ष्म रूपी द्रव्य तथा अमूर्त आकाश आदि । अगुरुलघु नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को स्वयं का शरीर वजन में . हल्का और भारी प्रतीत न होकर अगुरुलघु परिणाम वाला प्रतीत
होता है। अग्निकाय-तेज परमाणुओं से निर्मित शरीर। अग्रहणवर्गणा-जो अल्प परमाणु वाली होने के कारण जीव द्वारा ग्रहण नहीं
की जाती है। अघाती कर्म-जीव के प्रतिजीवी गुणों के घात करने वाले कर्म । उनके कारण
__आत्मा को शरीर की कैद में रहना पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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