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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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उपान्त्य समय में निद्राद्विक का स्वरूपसत्ता की अपेक्षा क्षय करता है और अन्तिम समय में शेष चौदह प्रकृतियों का क्षय करता है
खोणकसायदुचरिमे निद्दा पयला य हणइ छउमत्थो ।
आवरणमंतराए छउमत्थो चरिमसमयम्मि ॥ इसके अनन्तर समय में यह जीव सयोगिकेवली होता है। जिसे जिन, केवलज्ञानी भी कहते हैं। सयोगिकेवली हो जाने पर वह लोकालोक का पूरी तरह ज्ञाता-द्रष्टा होता है। संसार में ऐसा कोई पदार्थ न है, न हुआ और न होगा जिसे जिनदेव नहीं जानते हैं। अर्थात् वे सबको जानते और देखते हैं
संभिन्नं पासंतो लोगमलोगं च सव्वओ सम्वं ।
तं नथि जं न पासइ भूयं भव्वं भविस्सं च ॥ इस प्रकार सयोगिकेवली जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट से कुछ कम पूर्वकोटि काल तक विहार करते हैं। सयोगिकेवली अवस्था प्राप्त होने तक चार घातीकर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-नि:शेष रूप से क्षय हो जाते हैं, किन्तु शेष वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार अघातिकर्म शेष रह जाते हैं। अत: यदि आयुकर्म को छोड़कर शेष वेदनीय, नाम, गोत्र, इन तीन कर्मों की स्थिति आयुकर्म की स्थिति से अधिक होती है तो उनकी स्थिति को आयुकर्म की स्थिति के बराबर करने के लिये अन्त में समुद्घात करते हैं और यदि उक्त शेष तीन कर्मों की स्थिति आयुकर्म के बराबर होती है तो समुद्घात नहीं करते हैं । प्रज्ञापना सूत्र में कहा भी हैसम्वे वि णं भंते ! केवली समुग्घायं गच्छंति ? गोयमा ! नो इण? सम?।
जस्साउएण तुल्लाई बंधणेहि ठिईहि य । भवोवग्गहकम्माइं न समुग्घायं स गच्छह ॥
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