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षष्ठ कर्मग्रन्थ
सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्तिम समय में ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की चार, अन्तराय की पाँच, यश:कीति और उच्चगोत्र, इन सोलह प्रकृतियों का बंधविच्छेद तथा मोहनीय का उदय और सत्ता विच्छेद हो जाता है। - इस प्रकार से मोहनीय की क्षपणा का क्रम बतलाने के बाद अब पूर्वोक्त अर्थ का संकलन करने के लिये आगे की गाथा कहते हैं
पुरिसं कोहे कोहं माणे माणं च छुहइ मायाए। मायं च छुहइ लोहे लोहं सुहुमं पि तो हणइ ॥६४॥
शब्दार्थ-पुरिसं-पुरुषवेद को, कोहे-संज्वलन क्रोध में, कोहं-क्रोध को, माणे-संज्वलन मान में, माणं-मान को, च-और, छुहइ-संक्रमित करता है, मायाए-संज्वलन माया में, मायं-माया को, च-और, छुहह-संक्रमित करता है, लोहे--संज्वलन लोभ में, लोहं-लोभ को, सुहुमं- सूक्ष्म, पि-भी, तो-उसके बाद, हणइक्षय करता है।
गाथार्थ--पुरुषवेद को संज्वलन क्रोध में, क्रोध को संज्वलन मान में, मान को संज्वलन माया में, माया को संज्वलन लोभ में संक्रमित करता है, उसके बाद सूक्ष्म लोभ का भी स्वोदय से क्षय करता है।
विशेषार्थ--गाथा में संज्वलन क्रोध आदि चतुष्क के क्षय का क्रम बतलाया है।
इसके लिये सर्वप्रथम बतलाते हैं कि पुरुषवेद के बंध आदि का
तुलना कीजियेकोहं च छुहइ माणे माणं मायाए णियमसा छुहइ । मायं च छुहइ लोहे पंडिलोयो संकियो णत्थि ।।
--कषाय पाहुड, क्षपणाधिकार . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org