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श्री वीतरागाय नमः
सप्ततिका प्रकरण [ षष्ठ कर्म ग्रन्थ ]
सप्ततिका प्रकरण के आधार, अभिधेय एवं अर्थगांभीर्य को प्रदशित करने वाली प्रतिज्ञा गाथा
सिद्धपएहिं महत्थं बन्धोदयसन्तपयडिठाणाणं । वोच्छं सुण संखेवं नोसंदं दिठिवायस्स ॥१॥ शब्दार्थ — सिद्धपएहि - सिद्धपद वाले ग्रन्थों से, महत्थं - महान अर्थ वाले, बंधोदयसंतपय डिठाणाणं - बंध, उदय और सत्ता प्रकृतियों के स्थानों को, वोच्छं— कहूंगा, सुण - सुनो, संखेव - संक्षेप में, नीसंद - निस्यन्द रूप, बिन्दु रूप, दिठिवायस्स - दृष्टिवाद अंग
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गाथार्थ – सिद्धपद वाले ग्रन्थों के आधार से बंध, उदय और सत्ता प्रकृतियों के स्थानों को संक्षेप में कहूँगा, जिसे सुनो। यह संक्षेप कथन महान् अर्थ वाला और दृष्टिवाद अंग रूपी महार्णव के निस्यन्द रूप - एक बिन्दु के समान है ।
विशेषार्थ - गाथा में ग्रन्थ की प्रामाणिकता, वर्ण्य विषय आदि का संकेत किया है । सर्वप्रथम ग्रन्थ की प्रामाणिकता का बोध कराने के लिए पद दिया है 'सिद्धपए हि' यानी यह ग्रन्थ सिद्ध अर्थ के आधार से रचा गया है । इस ग्रन्थ में वर्णित विषय में किसी प्रकार से पूर्वापर विरोध नहीं है ।
जिस ग्रन्थ, शास्त्र या प्रकरण का मूल आधार सर्वज्ञ वाणी होती है, वही ग्रन्थ विद्वानों ने लिए आदरणीय है और उसकी प्रामाणिकता
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