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________________ सप्ततिका प्रकरण ४१६ आवलिका काल के शेष रहने पर अप्रत्याख्यानावरण माया और प्रत्याख्यानावरण माया के दलिकों का संज्वलन माया में प्रक्षेप न करके संज्वलन लोभ में प्रक्षेप करता है । दो आवलि काल के शेष रहने पर आगाल नहीं होता किन्तु केवल उदीरणा ही होती है । एक आवलिका काल शेष रहने पर संज्वलन माया के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है तथा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण माया का उपशम हो जाता है । उस समय संज्वलन माया की प्रथमस्थितिगत एक आवलिका प्रमाण दलिकों को और उपरितन स्थितिगत एक समय कम दो आवलिका काल में बद्ध दलिकों को छोड़कर शेष दलिक उपशान्त हो जाते हैं । अनन्तर प्रथम स्थितिगत एक आवलिका प्रमाण दलिकों का स्तिबुकसंक्रम के द्वारा क्रम से संज्वलन माया में निक्षेप करता है और एक समय कम दो आवलिका काल में बद्ध दलिकों का पुरुषवेद के समान उपशम करता है और पर प्रकृति रूप से संक्रमण करता है । इस प्रकार अप्रत्याख्यानावरण माया और प्रत्याख्यानावरण माया के उपशम होने के बाद एक समय कम दो आवलिका काल में संज्वलन माया का उपशम हो जाता है । जिस समय संज्वलन माया के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है, उसके अनन्तर समय से लेकर संज्वलन लोभ की द्वितीयस्थिति से दलिकों को लेकर उनकी लोभ वेदक काल के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण प्रथम स्थिति करके वेदन करता है । इनमें से पहले त्रिभाग का नाम अश्वकर्णकरण काल है और दूसरे विभाग का नाम किट्टीकरणकाल है । प्रथम अश्वकर्णकरण काल में पूर्व स्पर्धकों से दलिकों को लेकर अपूर्व स्पर्धक करता है । स्पर्धक की व्याख्या जीव प्रति समय अनन्तानन्त परमाणुओं से बने हुए स्कंधों को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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