________________
४१४
सप्ततिका प्रकरण है तथा दो आवलिकाल शेष रहने पर आगाल नहीं होता है किन्तु केवल उदीरणा ही होती है और एक आवलिका काल के शेष रह जाने पर संज्वलन क्रोध के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है और अप्रत्याख्यानावरण क्रोध तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोध का उपशम हो जाता है उस समय संज्वलन क्रोध की प्रथम स्थितिगत एक आवलिका प्रमाण दलिकों को और उपरितन स्थितिगत एक समय कम दो आवलिका काल के द्वारा बद्ध दलिकों को छोड़कर शेष दलिक उपशांत हो जाते हैं।
तदनन्तर प्रथम स्थितिगत एक आवलिका प्रमाण दलिकों का स्तिबुकसंक्रम के द्वारा क्रम से संज्वलन मान में निक्षेप करता है और एक समय कम दो आवलिका काल में बद्ध दलिकों का पुरुषवेद के समान उपशम करता है और पर-प्रकृति रूप से संक्रमण करता है। इस प्रकार अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध के उपशम होने के बाद एक समय कम दो आवलिका काल में संज्वलन क्रोध का उपशम हो जाता है। जिस समय संज्वलन क्रोध के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है, उसके अनन्तर समय से लेकर संज्वलन मान की द्वितीयस्थिति से दलिकों को लेकर उनकी प्रथम स्थिति करके वेदन करता है। प्रथमस्थिति करते समय प्रथम समय में सबसे थोड़े दलिकों का निक्षेप करता है। दूसरे समय असंख्यातगुणे दलिकों का, तीसरे समय में इससे असंख्यातगुणे दलिकों का निक्षेप करता है। इस प्रकार प्रथमस्थिति के अंतिम समय तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे दलिकों का निक्षेप करता है। प्रथमस्थिति
१ तिसु आवलियासु समऊणियासु अपडिग्गहा उ संजलणा ।
-कर्मप्रकृति गा० १०७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org