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सप्ततिका प्रकरण
प्रत्येक गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध और विच्छेद होता है और उनके नाम आदि का उल्लेख द्वितीय कर्मग्रंथ में विशेष रूप से किया गया है । अतः जिज्ञासु जन उसको देख लेवें।
गुणस्थानों में बंधस्वामित्व का उपसंहार करते हुए मार्गणाओं में भी सामान्य से बंधस्वामित्व को बतलाने के लिये कहते हैं किएसो उ बंधसामित्तओघो गइयाइएसु वि तहेव ।। ओहाओ साहिज्जा जत्थ जहा पगडिसब्भावो ॥६॥
शब्दार्थ-एसो-यह पूर्वोक्त गुणस्थान का बंधभेद, उ---- और, बंधसामित्त-बंध स्थामित्व का, ओघो-ओघ (सामान्य) से, गइयाइएसु-गति आदि मार्गणाओं में, वि-भी, तहेव--वैसे ही, इसी प्रकार, ओहाओ-ओघ से कहे अनुसार, साहिज्जा-कहना चाहिये, जत्थ-जिस मार्गणास्थान में, जहा---जिस प्रकार से, पगडिसम्भावो---प्रकृति का सद्भाव । ___ गाथार्थ-यह पूर्वोक्त गुणस्थानों का बंधभेद, स्वामित्व का ओघ कथन जानना चाहिये। गति आदि मार्गणाओं में भी इसी प्रकार (सामान्य से) जहाँ जितनी प्रकृतियों का बंध होता है, तदनुसार वहाँ भी ओघ के समान बंधस्वामित्व का कथन करना चाहिये । विशेषार्थ-पिछली चार गाथाओं में प्रत्येक गुणस्थान में प्रकृतियों के बंध करने और बंध नहीं करने का कथन किया गया है। जिससे सामान्यतया बंधस्वामित्व का ज्ञान हो जाता है, तथापि गति आदि मार्गणाओं में कितनी-कितनी प्रकृतियों का बंध होता है और कितनीकितनी प्रकृतियों का बंध नहीं होता है, इसको जानना शेष रह जाता है। इसके लिये गाथा में इतनी सूचना दी गई है कि जहाँ जितनी प्रकृतियों का बंध होता हो इसका विचार करके ओघ के समान मार्गणास्थानों में भी बंधस्वामित्व का कथन कर लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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