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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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चक्षुदर्शनावरण आदि चार, कुल मिलाकर इन चौदह प्रकृतियों की बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में एक आवलि काल शेष रहने तक उदय और उदीरणा बराबर होती रहती है । परन्तु एक आवलि काल के शेष रह जाने पर उसके बाद उक्त चौदह प्रकृतियों का उदय ही होता है किन्तु उदयावलिगत कर्मदलिक सब कारणों के अयोग्य होते हैं, इस नियम के अनुसार उनकी उदीरणा नहीं होती है।
शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवों के शरीरपर्याप्ति के समाप्त होने के अनन्त र समय से लेकर जब तक इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक दर्शनावरण की शेष निद्रा आदि पाँच प्रकृतियों का उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती है । इसके अतिरिक्त शेष काल में उनका उदय और उदीरणा एक साथ होती है और उनका विच्छेद भी एक साथ होता है।
साता और असाता वेदनीय का उदय और उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक एक साथ होती है, किन्तु अगले गुणस्थानों में इनका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है। प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाले जीव के अन्तरकरण करने के पश्चात् प्रथमस्थिति में एक आवलि प्रमाण काल के शेष रहने पर मिथ्यात्व का उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है तथा क्षायिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाले जिस वेदक सम्यग्दृष्टि जीव ने मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्व का क्षय करके सम्यक्त्व की सर्वअपवर्तना के द्वारा अपनतना करके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति शेष रखी है और उसके बाद उदय तथा
१ दिगम्बर परंपरा में निद्रा और प्रचला का उदय और सत्वविच्छेद
क्षीणमोह गुणस्थान में एक साथ बतलाया है। इसलिये इस अपेक्षा से इनमें से जिस उदयगत प्रकृति की उदयव्युच्छित्ति और सत्वव्युच्छित्ति एक साथ होगी, उसकी उदयव्युच्छित्ति के एक आवलिकाल पूर्व ही उदीरणा व्युच्छित्ति हो जायेगी।
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