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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ ३२१ (२) सासावन गुणस्थान - पहले गुणस्थान के बंध आदि स्थानों को बतलाने के बाद अब दूसरे गुणस्थान के बंध आदि स्थानों का निर्देश करते हैं कि-'तिग सत्त दुगं' । अर्थात् ३ बंधस्थान हैं, ७ उदयस्थान हैं और २ सत्तास्थान हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है सासादन गुणस्थान में २८, २६ और ३० प्रकृतिक, ये तीन बंधस्थान हैं। इनमें से २८ प्रकृतिक बंधस्थान दो प्रकार का है-नरकगतिप्रायोग्य और देवगतिप्रायोग्य । सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के नरकगतिप्रायोग्य का तो बंध नहीं होता किन्तु देवगतिप्रायोग्य का होता है। उसके बंधक पर्याप्त तियंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य होते हैं। इसके आठ भंग होते हैं। २६ प्रकृतिक बंधस्थान के अनेक भेद हैं किन्तु उनमें से सासादन के बंधने योग्य दो भेद हैं--तिर्यंचगतिप्रायोग्य और मनुष्यगतिप्रायोग्य । इन दोनों को सासादन एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, देव और नारक जीव बांधते हैं। यहाँ उसके कुल भंग ६४०० होते हैं। क्योंकि यद्यपि सासादन तियंचगतिप्रायोग्य या मनुष्यगतिप्रायोग्य २६ प्रकृतियों को बाँधते हैं तो भी वे हुंडसंस्थान और सेवार्त संहनन का बंध नहीं करते हैं, क्योंकि इन दोनों प्रकृतियों का बंध मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होता है। जिससे यहाँ पाँच संहनन, पाँच संस्थान, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति युगल, स्थिर-अस्थिर युगल, शुभ-अशुभ युगल, सुभग-दुर्भग युगल, सुस्वर-दुःस्वर युगल, आदेयअनादेय युगल और यशःकीर्ति-अयश:कीर्ति युगल, इस प्रकार इनके परस्पर गुणित करने पर ३२०० भंग होते हैं। ये ३२०० भंग तिर्यंचगतिप्रायोग्य भी होते हैं और मनुष्यगतिप्रायोग्य भी होते हैं। इस प्रकार दोनों का जोड ६४०० होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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