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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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१९२०+१२८+१२८+६४=२२४० है। योग की अपेक्षा ये २२४० भंग चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में प्राप्त होते हैं। __ पांचवें देशविरति गुणस्थान में औदारिकमिश्र, कार्मण काययोग और आहारकद्विक के बिना ११ योग होते हैं। यहाँ प्रत्येक योग में भंगों की ८ चौबीसी संभव हैं अत: यहाँ कुल भंग (११४८-८८x २४=२११२) २११२ होते हैं।
छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग के बिना १३ योग और प्रत्येक योग में भंगों की ८ चौबीसी होनी चाहिए। किन्तु ऐसा नियम है कि स्त्रीवेद में आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग नहीं होता है। क्योंकि आहारक समुद्घात चौदह पूर्वधारी ही करते हैं। किन्तु स्त्रियों के चौदह पूर्वो का ज्ञान नहीं पाया जाता है। इसके कारण को स्पष्ट करते हुए बताया भी है कि--
तुच्छा गारवबहुला चलिविया दुम्बला य धीईए।
इय अइसेसमयणा भूयावाओ य नो थोणं ।' अर्थात् स्त्रीवेदी जीव तुच्छ, गारवबहुल, चंचल इन्द्रिय और बुद्धि से दुर्बल होते हैं । अत: वे बहुत अध्ययन करने में समर्थ नहीं हैं और उनमें दृष्टिवाद अंग का भी ज्ञान नहीं पाया जाता है।
इसलिये ग्यारह योगों में तो भंगों की आठ-आठ चौबीसी प्राप्त होती हैं किन्तु आहारक और आहारकमिश्र काययोगों में भंगों के आठ-आठ षोडशक प्राप्त होते हैं । इस प्रकार यहाँ ११४८८८ X२४=२११२ तथा १६४८=१२८ और १६X८=१२८ भंग हैं । इन सबका जोड़ २११२+१२८+१२८=२३६८ होता है। अत: प्रमत्तसंयत गुणस्थान में कुल भंग २३६८ होते हैं ।
१ बृहत्कल्पभाष्य गा० १४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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