SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ सप्ततिका प्रकरण ... इस प्रकार से जीवस्थानों में पृथक्-पृथक् उदय और सत्तास्थानों का कथन करने के अनन्तर अब इनके संवेध का कथन करते हैं-आठ जीवस्थानों में एक २२ प्रकृतिक बंधस्थान होता है और उसमें ८, ९ और १० प्रकृतिक, यह तीन उदयस्थान होते हैं तथा प्रत्येक उदयस्थान में २८, २७ और २६ प्रकृतिक सत्तास्थान हैं। इस प्रकार आठ जीवस्थानों में से प्रत्येक के कुल नौ भंग हुए । पाँच जीवस्थानों में २२ प्रकृतिक और २१ प्रकृतिक, ये दो बंधस्थान हैं और इनमें से २२ प्रकृतिक बंधस्थान में ८, ६ और १० प्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं और प्रत्येक उदयस्थान में २८, २७ और २६ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान हैं। इस प्रकार कुल नौ भंग हुए । २१ प्रकृतिक बंधस्थान में ७, ८ और ६ प्रकृतिक, तीन उदयस्थान हैं और प्रत्येक उदयस्थान में २८ प्रकृतिक एक सत्तास्थान होता है। इस प्रकार २१ प्रकृतिक बंधस्थान में तीन उदयस्थानों की अपेक्षा तीन सत्तास्थान हैं। दोनों बंधस्थानों की अपेक्षा यहाँ प्रत्येक जीवस्थान में १२ भंग हैं। __ २१ प्रकृतिक बंधस्थान में २८ प्रकृतिक एक सत्तास्थान मानने का कारण यह है कि २१ प्रकृतिक बंधस्थान सासादन गुणस्थान में होता है और सासादन गुणस्थान २८ प्रकृतिक सत्ता वाले जीव को ही होता है, क्योंकि सासादन सम्यग्दृष्टियों के दर्शनमोहत्रिक की सत्ता पाई जाती है। इसीलिये २१ प्रकृतिक बंधस्थान में २८ प्रकृतिक सत्तास्थान माना जाता है। एक संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवस्थान में मोहनीय कर्म के बंध आदि स्थानों के संवेध का कथन जैसा पहले किया गया है, वैसा ही यहाँ जानना चाहिये। १ एकविंशतिबन्धो हि सासादन भावमुपागतेषु प्राप्यते, सासादनाश्चावश्य मष्टाविंशतिसत्कर्माणः, तेषां दर्शनत्रिकस्य नियमतो भावात्, ततस्तेषु सत्तास्थानमष्टाविंशतिरेव । -सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy