________________
२१८
सप्ततिका प्रकरण
पज्जत्तापज्जत्तग समणे पज्जत्त अमण सेसेसु ।
अट्ठावीसं दसगं नवगं पणगं च आउस्स ।। अर्थात्-पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय, पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय और शेष ग्यारह जीवस्थानों में आयु कर्म के क्रमशः २८, १०, ६ और ५ भंग होते हैं।
आशय यह है कि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में आयुकम के २८ भंग होते हैं। अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में १० तथा पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में ६ भंग होते हैं। इन तीन जीवस्थानों से शेष रहे ग्यारह जीवस्थानों में से प्रत्येक में पांच-पांच भंग होते हैं।
पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में आयुकर्म के अट्ठाईस भंग इस प्रकार समझना चाहिये कि पहले नारकों के ५, तिर्यंचों के ६, मनुष्यों के है और देवों के ५ भंग बतला आये हैं, जो कुल मिलाकर २८ भंग होते हैं, वे ही यहां पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के २८ भंग कहे गये हैं। विशेष विवेचन इस प्रकार है---
नारक जीव के १. परभव की आयु के बंधकाल के पूर्व नरकायु का उदय, नरकायु की सत्ता, २. परभव की आयु बंध होने के समय तिर्यंचायु का बंध, नरकायु का उदय, नरक-तिर्यंचायु की सत्ता अथवा ३. मनुष्यायु का बंध, नरकायु का उदय, नरक-मनुष्यायु की सत्ता, ४. परभव की आयुबंध के उत्तरकाल में नरकायु का उदय और नरकतिर्यंचायु की सत्ता अथवा ५. नरकायु का उदय और मनुष्य-नरकायु की सत्ता, यह पांच भंग होते हैं। नारक जीव भवप्रत्यय से ही देव और नरकायु बंध नहीं करते हैं अतः परभव की आयु बंधकाल में और बंधोत्तर काल में देव और नरकायु का विकल्प सम्भव नहीं होने से नारक जीवों में आयुकर्म के पांच विकल्प ही होते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org