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सप्ततिका प्रकरण
के जीवस्थानों और गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामी का निर्देश किया है । किन्तु उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा बंधस्थान, उदयस्थान और उनके संवेध भंगों के स्वामी का निर्देश नहीं किया है । इनके निर्देश करने की प्रतिज्ञा इस गाथा में की गई है कि तीनों प्रकार के प्रकृतिस्थानों के सब भंग जीवस्थानों और गुणस्थानों में घटित करके बतलाये जायेंगे |
जीवस्थानों और गुणस्थानों में से पहले यहाँ जीवस्थानों में तीनों प्रकार के प्रकृतिस्थानों के सब भंग घटित करते हैं ।
जीवस्थानों के संवेध भंग
पहले अब ज्ञानावरण और अंतराय कर्म के भंग बतलाते हैं । तेरससु जीवसंखेवएसु नाणंतराय तिविगप्पो । एक्कम्मि तिदुविगप्पो करणं पइ एत्थ अविगप्पो ||३४||
शब्दार्थ -- तेरससु—- तेरह, जीवसंखेवएसु— जीव के संक्षेप ( स्थानों) के विषय में, नाणंतराय -- ज्ञानावरण और अंतराय कर्म के, तिविगप्पोतीन विकल्प, एक्कम्मि - एक जीवस्थान में, तिदुविगप्पो-तीन अथवा दो विकल्प करणंपs - करण ( द्रव्यमन के आश्रय से) की अपेक्षा, एत्थ - यहाँ, अविगप्पो - विकल्प का अभाव है ।
गाथार्थ - आदि के तेरह जीवस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म के तीन विकल्प होते हैं तथा एक जीवस्थान ( पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय) में तीन और दो विकल्प होते हैं । द्रव्यमन की अपेक्षा इनके कोई विकल्प नहीं हैं ।
विशेषार्थ -- इस गाथा से जीवस्थानों में संवेध भंगों का कथन प्रारम्भ करते हैं । सर्वप्रथम ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म के भंग
बतलाते हैं ।
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