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सप्ततिका प्रकरण
है जो अपूर्वकरण गुणस्थान के सातवें भाग से लेकर दसवें गुणस्थान तक होता है। यह जीव अत्यन्त विशुद्ध होने के कारण वैक्रिय और आहारक समुद्घात को नहीं करता है, जिससे इसके २५ आदि प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होते किन्तु एक ३० प्रकृतिक ही उदयस्थान होता है।
एक प्रकृतिक बंधस्थान में जो आठ सत्तास्थान बताये हैं, उनमें से आदि के चार ६३, ६२, ८६. और ८८ प्रकृतिक सत्तास्थान उपशमश्रेणि की अपेक्षा और अंतिम चार ८०,७६,७६ और ७५ प्रकृतिक सत्तास्थान क्षपकश्रेणि की अपेक्षा कहे हैं। परन्तु जब तक अनिवृत्तिकरण के प्रथम भाग में स्थावर, सूक्ष्म, तिर्यंचद्विक, नरकद्विक, जातिचतुष्क, साधारण, आतप और उद्योत, इन तेरह प्रकृतियों का क्षय नहीं होता तब तक ६३ आदि प्रकृतिक, प्रारम्भ के चार सत्तास्थान भी क्षपकश्रेणि में पाये जाते हैं। ___इस प्रकार एक प्रकृतिक बंधस्थान में एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान तथा ६३, ६२, ८६, ८८, ८०, ७६, ७६ और ७५ प्रकृतिक, ये आठ सत्तास्थान समझना चाहिये।
अब उपरतबंध की स्थिति के उदयस्थानों और सत्तास्थानों का विचार करते हैं। बंध के अभाव में भी उदय एवं सत्ता स्थानों का विचार करने का कारण यह है कि नामकर्म का बंध दसवें गुणस्थान तक होता है, आगे के चार गुणस्थानों में नहीं, किन्तु उदय और सत्ता १४वें गुणस्थान तक होती है। फिर भी उसमें विविध दशाओं और जीवों की अपेक्षा अनेक उदयस्थान और सत्तास्थान पाये जाते हैं। इनके लिये गाथा में कहा है
उवरयबंधे बस घस वेयगसंतम्मि ठाणाणि । अर्थात-बंध के अभाव में भी दस उदयस्थान और दस सत्तास्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org