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प्रकृतियों की सत्ता को लेकर आया है (गाथा ६६, ६७, ६८ ) । इससे यह प्रतीत होता है कि जब कर्मविषयक अनेक मतान्तर प्रचलित हो गये थे, तब इसकी रचना हुई होगी। लेकिन इसकी प्रथम गाथा में इसे दृष्टिवाद अंग की एक बूँद के समान बतलाया गया है तथा इसकी टीका करते हुए सभी टीकाकार अग्रायणीय पूर्व की पांचवीं वस्तु के चौथे प्राभृत से इसकी उत्पत्ति मानते हैं । एतदर्थ इसकी मूल साहित्य में गणना की गई है। दूसरी बात यह है कि सप्ततिका की गाथाओं में कर्म सिद्धान्त का समस्त सार संकलित कर दिया है । इस पर जब विचार करते हैं, तब इसे मूल साहित्य मानना ही पड़ता है । सप्ततिका की गाथा संख्या
यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'सप्ततिका' गाथाओं की संख्या के आधार से रखा गया है, लेकिन इसकी गाथाओं की संख्या को लेकर मतभिन्नता है । इस संस्करण में ७२ गाथाएँ हैं । अन्तिम गाथाओं में मूल प्रकरण के विषय की समाप्ति का संकेत किये जाने से यदि उन्हें गणना में न लें तो इस प्रकरण का 'सप्ततिका' यह नाम सुसंगत और सार्थक है । किन्तु अभी तक इसके जितने संस्करण देखने में आये हैं, उन सबमें अलग-अलग संख्या दी गई है । श्री जैन श्रेयस्कर मंडल महेसाना की ओर से प्रकाशित संस्करण में इसकी संख्या ६१ दी है । प्रकरण रत्नाकर चौथे भाग में प्रकाशित संस्करण में ६४ है तथा आचार्य मलयगिरि की टीका के साथ श्री आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला भावनगर की ओर से प्रकाशित संस्करण में इसकी संख्या ७२ दी है । चूर्णि के साथ प्रकाशित संस्करण में ७१ गाथाओं का उल्लेख किया है ।
इस प्रकार गाथाओं की संख्या में भिन्नता देखने को मिलती है गाथा संख्या की भिन्नता के बारे में विचार करने पर इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि गुजराती टीकाकारों द्वारा अन्तर्भाष्य गाथाओं को मूल गाथा के रूप में स्वीकार कर लिया है तथा कुछ गाथाएँ प्रकरण उपयोगी होने से मूलगाथा के रूप में मान ली गई हैं । परन्तु हमने
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